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________________ ( ३० ) ही, नम्र भूमितें लागीजी || केवल० ||२|| समबसरन रचना सुर कीन्हीं, देखत भ्रम जन त्यागी जी ॥ केवल० ||३|| भक्तिसहित अरचा नब कीन्हींपरम धरम अनुरागी जी ॥ केवल० ||५|| दिव्यध्वनि सुनि सभा दुवादश, आनंदरसमें पागी जी ॥ केबल ||५|| भागचन्द प्रभु भक्ति चहत है, और कछु नहिं मांगी जी ॥६॥ ६४ राग ठुमरी । जीवनि परिनामनिकी यह, अति विचित्रता देखहु ज्ञानी ॥ टेक ॥ नित्य निगोदमाहितैं कढि कर, नर परजाय पाय सुखदानी । समकित लहि अन्तर्मुहूर्त मैं, केवल पाय वरै शिवरानी ॥१॥ मुनि एकादश गुणथानक चढ़ि, गिरत तहां चित भ्रम ठानी । भ्रमत अर्धपुद्गल प्रावर्तन, किंचित् ऊन काल परमानी ||२|| निज परिनामनिकी सँभाल में, तातें गाफिल मत है प्रानी । बंध मोक्ष परिनामनि ही सों, कहत सदा श्रीजिनवरवानी ||३|| सकल उपाधिनिमित भावनिसों, भिन्न सुनिज परनतिको छानी । ताहि जानि रुचि ठानि होहु थिर, भागचन्द यह सीख सयानी ॥४॥ ¿
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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