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________________ ( ३२ ) पुण्य एक पाप, एक रागहरनी ।। पर०॥ टेक ॥ तामें शुभ अशुभ बन्ध, दोय करै कर्मबन्ध, वीतराग परिनति ही, भवसमुद्रतरनी ॥१॥ जावत शुद्धोपयोग, पावत नाहीं मनोग, तावत ही सरन जोग, कही पुण्य करनी ॥२ । त्याग शुभ क्रिया कलाप, करो मत कदाच पाप, शुभमें न मगन होय, शुद्धता विसरनी ॥३॥ ऊंच ऊंच दशा धारि, चित प्रमादको विडारि, ऊंचली दशारौं मति, गिरो अधो. अधो धरली । ४॥ भागचन्द या प्रकार, जीव लहै सुख अपार, याके तिरधारि स्यादवादकी उचरनी ॥ ___ आकुलरहित होय इमि निशदिन, कीजे तत्त्व विचारा हो । को मैं कहा रूप है मेरा, पर है कौन प्रकारा हो ॥ टेक ॥१॥ को लव-कारण बन्ध कहा को, आस्रवरोकनहारा हो । खिपत कर्म बन्धन काहेसों, थानक कौन हमारा हो ॥२॥ इमि अभ्यास किये पावत है, परमानन्द अपारा हो। भागचन्द यह सार जान करि, कीजे वारंवारा हो ॥ आकुलरहित होय० ॥ ३॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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