SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २६ ) प्रभू० ॥१॥ निर्मलरूप भयो अब मेरो, भक्तिनदीजल न्हायो। प्रभू ॥२॥ भागचन्द अब मम करतलमें अविचल शिवथल आयो ॥ प्रभू ॥३॥ ६१ राग मल्होर। प्रभू म्हांकी सुधि, करुना करि लीजे ॥ टेक मेरे इक अबलम्बन तुम ही, अब न बिलम्ब करीजे प्रभूः ॥१॥ अन्य कुदेव तजै सब मैंने लिननै निजगुन छीजे ॥प्रभू०॥२॥ भागचन्द तुम शरन लियो है, अब निश्चल पद दीजे ॥ प्रभू० ॥३॥ ६२ राग कलिगड़ा। ___ ऐसे साधू सुगुरु कब मिलिहै ॥टेक॥ आप तरें अरु परको तारें, निष्पही निर्मल हैं । ऐसे० ॥१॥ तिलतुषमात्र संग नहिं जाकै, ज्ञान-ध्यान-गुण-बल हैं ॥ ऐसे साधू ॥२॥ शान्तदिगम्बर मुद्रा जिनकी, कन्दिरतुल्य अचल हैं। ऐसे ॥३॥ भागचन्द तिनको नित चाहै, ज्यों कमलनिको अल है ॥ ऐसे० ६३ राग कहरवा कलिगड़ा। केवल जोति सुजागी जी, जय श्रीजिनवरके ॥ टेक ॥ लोकालोक विलोकत जैसे, हस्तामल वड़भागी जी ॥ के० ॥१॥ हार-चूड़ामनिशिखा सहज
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy