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________________ चहे नरघाती हो विकराल, चहे मिथ्यामति हो चंडाल । रहे विपलम्पट हो नादान. विनय मनधार नमूंजिनवान ॥३॥ चहे हो भील चहे ठग चोर-चहे गनिका अधकीने घोर । दिया गुणलान सभीकोदान विनय० ॥ ४ ॥ चहंगनघोनश सिंह सियाल-चहें शुकवानर शकर व्याल । वह अन, महिमा, गर्दभ रवान, विनय० ॥ ५ ॥ दिया उपदेश किये सबपार--किया भूमंडल मोहिबिहार । हरो मिथ्यात प्रकाशो ज्ञान । विनय मनः ॥६॥ किया फिर गौतम ने उपकार दिया उपदेश सुना संसार । हुये बहुजीवन के दुखहीन । विनय मन ।। ७ ।। भये श्रुतदेवलि केलि आदि-भये मुनिराज जयोजिन । धादिरचे तिनग्रंथसुपंथ दिखान । विनय मन० ॥८॥ सुही जिनहानि तुही निनग्रंथ, तुही जिनागम है शिवपंथ । तुही तम दूर करे अज्ञान, विनय यनधार नमू० ॥६॥ भया मम मात मेरे मन शोक, भया ज्ञान दशा विचलोक। किया जो मात तेरा अपमान-विनय० ॥१०॥ तुझे संदूकन में ली रोक-अलीगढ़ के हद ताले ठोक । नमें नित दूरखड़े अज्ञान-विनय० ॥११॥ नहीं दिन एकभी धूप दिखात--बड़े सुखचैन से दीमक खात । विनय वतलावत याहि अज्ञान-विन० ॥१२॥ लई मन मूर्खजनों ने धार, न होय किसी विधि सोयप्रचार ।
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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