SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 332
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६ ) न आगमभेद कोई ले जान- विनय० ॥ १३ ॥ लवी सत्र महिना पञ्च काल, हुये मतिहीन फंसे भ्रमजाल । पढ़ें कोई शास्त्र न सुनियन कान बिन० || १४ | किया तीर्थकर यदि चार- यह रक्खें मूंदके मूढांवर । भला इनकेसम कौन अज्ञान, विनय न० ॥ १५ ॥ यदि तु वैन न पडै नत्रिकोन, यदि परचार न तेरा होय । तो कैसे हो फिर जग कल्यान, विनय मन धार० ॥ १६ ॥ नविन व जगमांहि, फहरा वै जैनपताका नाहि । न हो ज्योत रवी शशि ज्ञान, विनय ० ॥ १७ ॥ करो अब मात दया की, करो अमात सुद्धिकृ । हरो सव जीवन का अान, विनय मन० ॥ १८ ॥ करो सब जीवन का उपकार, यह दो सब जन के मन में धार । करें प्रचार बनै वस्वान विनय० ॥ १६ ॥ न होप प्रचार में तुन रोक, करें सब सत्यविनयदें धोक ! सभीजगवीच प्रकाशेहान, विनय मन० ॥ २० ॥ घत्ता जयजप जिनवानी, शिव सुखदानी, जगजिय पानीहितकरनी ! दुष्ट उचारन, पापी तारन, कुमति कुमतियों की हरनी । भील उतारे चोर उभारे, पशुवत को तारन तरनी । पारकिये जगजीव अन, यो महिमा जोती चरनी ॥ २१ ॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy