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________________ ( २४ ) राखें । सम्यगदर्शनज्ञान चरनतप, भावसुधारस चाखें । ऐसे ॥३॥ परकी इच्छा तजि निजवल सजि, पूरव कर्म खिरावै । सकल कर्म भिन्न अवस्था सुग्वमग लखि चित चावै ॥ ऐसे ॥४॥ उदासीन शुद्धोपयोगरत सबके दृष्टा ज्ञाता। वाहिजरूप नगन समताकर, भागचन्द सुखदाता ॥ऐसे ॥ ४८ राग-जंगला। __तुम गुनमनिनिधि हो अरहंत ॥ टेक ॥ पार न पावत तुमरो गनपति, चार ज्ञान धरि संत ॥ तुम गुन० ॥१॥ ज्ञानकोष सब दोष रहित तुम, अलख असूर्ति अचिंत ॥ ॥ तुम गुन ॥२॥ हरिगन अरचत तुम पवारिज, परमेष्ठी भगवन्त ॥ तुम गुन ॥३॥ भागचन्दके घटमन्दिरमें, वसहु सदा जयवंत ॥ तुम गुन ॥४॥ ४६ राग-जंगला। शान्ति वरन मुनिराई वर लखि । उत्तर गुनगन सहित (खूल गुन सुभग) बरात सुहाई ॥टेक॥ तप रथपै आरूढ़ अनूपम, धरम सुमंगलदाई ॥ शांति घरन ॥१॥ शिवरमनीको पानि ग्रहण करि, ज्ञानानन्द उपाई ॥ शांति वरन ॥ भागचन्द ऐसे
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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