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________________ ( २३ ) आतम० ॥३॥ ज्ञानानन्द सुधारस उमगे, घट अंतर न समावै ॥ आतम || भागचन्द ऐसे अनुभवके हाथ जोरि सिर नाचे || आतम० ||४|| ४६ राग-ईमन | महिमा है अगम जिनागमकी ॥ टेक ॥ जाहि सुनत जड़ भिन्न पिछानी, हम चिन्मूरति आतमकी ॥ महिमा० ॥ १ ॥ रागादिक दुखकारन जानें, त्याग बुद्धि दोनी भ्रमकी । ज्ञान ज्योति जागी घट अन्तर, रुचि वाढ़ी पुनि शमदसकी || महिमा ||२|| कर्म बन्धकी भई निरजरा, कारण परंपराक्रमकी । भागचन्द शिवलालच लागो, पहुंच नहीं है जहां जमकी || महिमा० ॥३॥ ४७ ऐसे जैनी मुनिमहाराज, सदा उर मो बसौ अहं बुद्धि ॥ टेक ॥ तिन समस्त परद्रव्यनिमाहीं, तजि दीनी ॥ गुन अनन्त ज्ञानादिक मम पुनि, स्वानुभूति लखि लीनी ॥ ऐसे० ॥ १॥ जे निजबुद्विपूर्व रागादिक, सकल विभाव निवारैं । पुनि अबुद्धिपूर्वकनाशनको, अपने शक्ति सम्हारैं | ऐसे ० ॥ २ ॥ कर्म शुभाशुभ बन्ध उदयमें हर्ष विषाद न
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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