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________________ [२८] जिम तीव्र तपोहत पांथ जनान, पद्मालर आसर वात भवे॥७॥ सव देवयजे अनतोष भयो-लखरूप कृतारथ जन्म थयो-चख अमृत वारिध कौन पिवे ॥४॥ गीता छंद। कुज्ञाल छौनी मोक्ष दैनी आतमा दरसावनी । घट पट प्रकाशन जैन सासन संत जन मनभावनी।। रविनंद जुग जुग अन्द विक्रम साठ सित तेरस लसी। अरदास हग सुख दासकी सुन नाश भव बंधन फंली ॥ ५७-अर्हतस्तुति वरवेकोठुमरी । लगे नैना समोसृत वारेसँ, हे वारेसे जग प्यारेलैं ।। टेक ॥ विश्व तत्त्व ज्ञाता जगत्राता, करम भरम हर तारेसे ॥१॥ तारण तरण सुभाव धरो जिन, पार लंघावन हारेसे ॥२॥ विन स्वारथ परमारथ कारण, डूवत काढ़न हारेसें ॥३॥ दृगसुख परम धरम हम पायो, स्याद्वादमत वारे से ॥४॥ ५८-गगमांड देश की ठुमरी । प्रभु तार तार भवसिंधुपार-संकटमंझार-तुमहीअधार-टुक दे सहार, वेगी काढो मोरी नय्या ॥टेका। परमाद चोर कियो हम पै जोर, भगशेततोर, दिये मझमें चोर तुम सम न और तारन तग्वय्या ॥ १॥ मोहि दंड दंड दियो दुख प्रचंड, कर खंड खंड चहुँगति में भंड तुम हो तरंड-तारो तारो मोरे संय्यां ।।२।। दृग सुखदाम तोगे है हिरास-मेरी काढ़ फांस, हर भवको बास, हम करत आस-तू है जग उधरय्या ॥३॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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