SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [२७] ५५ - रागनी जंगला झंझौटी। सुगुरुजी वानीजी सुगुरुकी वानी-तेरे दिल में क्यों न समानी सुगुरु की बानी-अरे अभिमानी सुगुरु की चानी || टेक ॥ वीतराग हिम गिरते निकली, यह गंगा सुखदानी, सप्तविभंगा, अमल तरंगा, भव आताप मिटानी ॥१॥ जग जननी परमारथ करनी-भापी केवल मानी सत्य सस्प यथास्थ निर्णय, सो तैनै विसरानी ॥ २॥ जामें बंध मोक्षकी कथनी, सुन सुरझै बहु प्राणी-पशु पक्षी से पाय मनुप पद, होय रहे शिवथानी ॥३॥ ते मिथ्या मत देव धरम भज पियो मूढ़ मद पानी कीनी भूत ऊत की सेवा-मिली न कौड़ी कानी॥ ४॥ मर्म अविद्या बस या जग में. ख़ाक बहुत ही छानी । अब जिन चैन गंगतट संवो, दृग सुख शिव सुखदानी ॥५॥ ५६-द्वंदत्रोटक वृत सरस्वती अष्टक । मुनि भाव तरंग विशुद्ध तरे-रज पाय प्रताप विभाव हरे मद मोह मरुस्थल भेज जवे, जय वीर हिमाचल बाग भवे ॥१॥ षट नंद तपालर को नगरी, लख तोही मिटे भव के भयरी, जड़ जीव चितावन रूप नवे ॥२॥ भव कानन आंगन भोर भरयो, बहुवार कुजन्म कुयोनि परयो जग शूल निमूल निवन्न दवे ॥३॥ मम केश करांकुर जोरि धरै-लख कोट सुमेरु सिवाय परै, हग पात पिता जननी सुचवे ॥ ४ ॥ लख सिंधु समाय न अश्रु मम-मम सर्व हितू अन एक ममं, अति खेद भरे कर्मोद्भः ॥ ५ ॥ अब आन परयौ तुमरे दपै-अपवर्ग धरो हमरे करप, जग जाल विमोचन भाल नवे ॥ ६ ॥ तुम नोम हरै भव पेद घना
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy