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________________ [२२] ४५ - राग जंगला- ठुपरी । इक जोगो असन बनावै, तमु भखत असन अघन लन होत ।।टेक ज्ञान सुधारस जल भरलावे, चूल्हा शोल वतावै ।। करम काष्ठकू चुग चुग बाले, ध्यान अगिनि प्रजलावे जी ॥ १ ॥ अनुभव भाजन निजगुण तंदुल, समता क्षीर मिलावै । लोह मिष्ठ, निशांक्ति व्यंजन,समकित छौंक लगावै जी ॥२॥ स्यादवाद, लतमा मलाले, गिणती पार न पावै।। निश्चय नयका, चमचा फेरे, विरध भावना भावजी ॥३॥ आप पकावै, आपहि खावै, खावत नाहि अघावै । तदपि मुक्ति, पद पंकज सवै, नयनानन्द सिरलाजी ॥४॥ ४६-रागधना श्री अथवा सोरठ । सतगुरु परम दयाल जगत में सतगुरु परम दयाल ॥ टेक ॥ लव जीवनि को संशय मेटें, देत सकल भय टाल । दुख सागर में डूबत जनकों. छिन में देत निकाल ॥ १॥ सुरग मुकति को पंथ बतावे. मेरि करम भ्रम जाल । धरम सुधारल प्याय हरै अघ, छिन में करत निहाल ॥ २॥ स्वान सिंह सतगुरु ने नारे तारे गज विकराल । सुगुरु प्रताप भये तीर्थ कर, अरु तारे श्रीपाल ॥३॥ पांच शतक मुनि कोल्हू पाड़े दंडक नृप चांडाल । होय जटायु सुगुरु पद सेये, पायो सुरग विशाल ॥ ४ ॥ चलि से दुष्ट सुपंथ लगाये, सतगुरु विष्णु दयाल । नयनानन्द सुगुरु सम जग में कौन कर प्रतिपाल ॥ ५॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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