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________________ [ २३ ] [४७] अब मुझे सुधि आई. जैन वाणी सुनि पाई ॥ टेक ॥ काल अनादि निगोद वेदना, भुगती कहिय न जाई । पड़ा नरक चिरकाल बिलायो, कोइ न शरण सहाई ॥ १ ॥ कबहुँक कंठ कुठारनि चीरा, दियो बांधि लटकाई । कबहुँक चार डारि कोल्ह में, तिलवत देह पिलाई ॥२॥ ताते नेल भाड़ में भुलो, कबहुँक शूल दिखाई। आंखन नून कान में डाटे, नाला चीर बगाई ॥३॥ वैतरनी में गेर घसीटो, गाल फुधात पिलाई। तांबा प्याय लोह की पुतली, ताती कर लिपटाई ॥४॥ मात पिता युवती सुत वांधव, संपति काम न आई । कबहुँक पशु पर जाय धरी तहां, बध बंधन अधिकाई ॥ ५॥ खनन तपन दाहन अरु धोकन, बहुविधि मरन कराई। नमन अमन दोउ भांति भरे दुख, छेदन वेदन पाई ॥ ६ ॥ कबहुँक मानुप देह विडंबो, विषयनि में लवलाई । अन्ध पंगु अरु रावरंक भयो, रोग सोग दुखदाई ।। ७ ॥ कुष्ठ जलोदर सोर कठोदर इष्ट वियोग गई । देव भयो पर संपति निरखत, झुरझुर देह जराई ॥ ८॥ वाहन जाति तथा भव पुरण, निरखि रहो पछिताई। यह विधि काल अनन्त भजो हम, मिथ्या भाव कपाई ॥६॥ अबत जोग फिरा भटकत ही, सम्यक दृष्टि न आई । अब जिन धर्म परम रस बरसे, भव तृष्णा न रहाई ॥१०॥ हग सुखदास आस भई पूरण, धन जिन वैन सहाई ॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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