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________________ vvvvvvvv ३४. महाचंद जैन भजनावलो। योनिमें ॥टेर ॥ द्वनिगोद वसि एक स्वास, अष्टादस मरण लहानी । सात सात लख योनि भोगिक पडियो थावर आनी ॥ सदा०॥ १॥ पृथ्वी जल अरु अग्नि पवनम, सात सात लख जानी। बनस्पती की काय मैं रे दश लख योनि करानी ॥ सदा०॥२॥ बेइन्द्री संखादि जीवकी द्वलख योनि बखानी । तेइंद्री चोइन्द्री जूक, अलो च्यारि लाख परवानी ॥ ३ ॥ तिरजंच माहि च्यारि लख धारी योनि महादुख दानी, भूख तृपा अरु शीत उष्णता अधिक भार लदानी ॥ सदा०॥४॥ पाप उदै जब नक योनिमें च्यारि लाख ठहरानी । छेदन भेदन ताड़न तापन दुक्ख सहे अधिकानी ॥ सदा ॥ ५ ॥ किंचितपुन्य वसाय देव पद योनि च्यारि लख मानी परकी ऋद्धि देखि अतिभूयो फूलमाल कुम्हलानी ॥ सदा ॥६॥ मनुष योनि लख चौदह सोते बहबेर पाय अज्ञानी। जैन धर्मको मर्म न जान्यौं मिथ्या भर्म भुलानी ॥ सदा०॥७॥ पुन्य
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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