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________________ ( १७ ) देव बहु हेरे, मेरा दुख नहिं भानो। बुधजनकी करुना ल्यो साहिब, दीजै अविचल थानो ॥अरज॥ (३५) राग-असावरी जोगिया ताल धीमो तेतालो। तू काई चालै लाग्यो रे लोभीड़ा, आयो छै बुढ़ापो ॥तू॥टेका धंधामाही अंधा ह कै, क्यों खोवै छै आपो रे ॥तू॥१॥ हिमतघटी थारी लुमति मिटी छै, भाजि गयो तरुणापो । जम ले जासो सब रह जासी, संग जासी पुन पापो रे ॥॥२॥ जग स्वारथको कोइ न तेरो, यह निहचै उर थापो । बुधजन ममत मिटावौ सन , करि सुख श्रीजिनजापो रे ॥ (३६) राग-असावरी जोगिया ताल धीमो तेतालो। थे ही मोने तारो जी, प्रभुजी कोई न हमारो थेही।टेका। हूं एकाकि अनादि काल , दुख पावत हू भारो जी॥थे ही ॥१॥ बिन सतलबके तुम ही स्वामी, मतलबको संसारो । जग जन मिलि मोहि जगमैं राई, तू ही काढनहारो॥थे ही॥२॥ बुधजन के अपराध मिटावो, शरन गह्यो छै थारो । भवदधिमाहीं डूबत मोकौं, कर गहि आप निकारो ॥३॥ (३७ ) राग-असावरी मांझ, ताल धोमो एकतालो। प्रभू जी अरज ह्मारी उर धरो ॥प्रभू जी टेका।
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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