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________________ अलपतै, मोपै जात न गाया । प्रचुर कृपा लखि रावरी, बुधजन हरषाया ॥ सारद ।। ४ ॥ गुरु दयाल तेरा दुख लखिकैं, सुन लै जो फुरसाचै है ॥ गुरु° ॥ तोमैं तेरा जतन बतावै, लोभ कळू नहिं चावै है ॥ गुरु ॥१॥ पर सुभावको मोखा __ चाहै, अपना उसा बनावै है । सो तो कबहूं हुवा न होसी, नाहक रोग लगावै है ॥ गुरु ॥ खोटी खरी जस करी कमाई, तैसी तेरै आवै है । चिन्ता आगि उठाय हियामैं, नाहक जान जलावै है । गुरु ॥३॥ पर अपनावै सो दुख पावै, बुधजन ऐसे गावै है । परको त्यागि आप थिर तिष्ठ, सो अविचल सुख पावै है ।। गु० ४ ॥ ३४ राग-असावरी। अरज ह्मारी भानो जी, याही मारी मानो, भवदधि हो तारना मारा जी ॥अरज०॥टेक॥ पतितउधारक पतित पुकारे, अपनो विरद पिछानो ॥ अरज ॥१॥ मोह मगर मछ दुख दावानल, जनम मरन जल जानो । गति गति भ्रमन भँवरमैं डूबत, हाथ पकरि ऊंचो आनो अरज ।।२।। जगमैं आन
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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