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________________ ( १५ ) रचन शरन गहि जांचत, नहिं जाऊं परद्वार ॥ निरखे ॥३॥ ३१ राग-बिलावल धीमो तेतालो । नरभव पाय फेरि दुख भरना, ऐसा काज न करना हो ॥ नरभव ॥ टेक ॥ नाहक ममत ठानि पुद्गगलसौं, करमजाल क्यौ परना हो ॥ नरभव ॥१॥ यह तो जड़ तू ज्ञान अरूपी, तिल तुष ज्यौं गुरु वरना हो । राग दोष तजि भजि समताको, कर्म साथके हरना हो ॥ नरभव ॥२॥ यो भव पाय विषय-सुख सेना, गज चढ़ि ईधन ढोना हो । बुधजन समुझि सेय जिनवर पद, ज्यौ भवसागर तरना हो ॥ नरभव ॥३॥ ३२ राग-बिलावल इकतालो। सारद ! तुम परसादतें, आनन्द उर आया ॥ सारद ॥ टेक ॥ ज्यौ तिरसातुर जीवकों, अम्रत जल पाया ॥ सारद ॥१॥ नय परमान निखेपतै तत्वार्थ वताया। भाजी भूलि मिथ्यातकी, निज निधि दरसाया ॥ सारद ॥२॥ विधिना मोहि अनादितै, चहुंगति भरमाया । ता हरिबैकी विधि सबै मुझमाहिं बताया ॥ सारद ॥३॥ गुन अनन्त मति
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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