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________________ ( ११ ) खुजायो || भजन || ३ || काल अनादि भ्रमायो भ्रमलां, कबहुं न थिर चित ल्यायो । हरी विषयसुख भरम भुलानो, मृग तिसना - वश धायो ॥ भजन ॥ ४ ॥ २२ राग-- पूरवी । ; तारो क्यौं न तारो जी म्हें तो थांके शरना आया ॥ टेक ॥ विधना मोकौं चहुँगति फेरत बड़े भाग तुम दरशन पाया ॥ तारो० ॥ १ ॥ मिथ्यामत जल मोह मकरजुत, भरम भौर में गोता खाया । तुम मुख वचन अलंवन पाया, अब बुधजन उरमें हरषाया ॥ तारो० ॥ २ ॥ २३ भवदधि-तारक नवका, जगमाहीं जिनवान ॥ भव० ॥ टेक ॥ नय प्रमान पतवारी जाके, खेवट आतम ध्यान ॥ भव ॥ १ ॥ मन वच तन सुध जन भवि धारत, ते पहुंचत शिवथान । परत अथाह मिथ्यात भँवर ते, जे नहिं गहत अजान ॥ भव ||२|| बिन अक्षर जिनमुखतै निकसी परी वरनजुत कान | हितदायक बुधजनकों गनधर, गूंथे ग्रन्थ महान ॥ भव० ॥ ३ ॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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