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________________ १० ) । भागन यह अवसर पाया, सुनियो जी, अब अरज मेरी कहूं । भवभवमें तुमरे चरननको, बुधजन दास सदा हि बन्यौ रहूं || नैन° ॥ २ ॥ २० राग- पूरवी जल्द तितालो । हरना जी जिनराज, मोरी पीर ॥ हरना ॥ टेक ॥ आन देव सेये जगवासी, सखौ नहीं मोर काज ॥ हरना ॥ १ ॥ जगमें वसत अनेक सहज ही, प्रनवत विविध समाज । तिनपे इष्ट अनिष्ट कल्पना, मैटोगे महाराज | हरना || २ || पुद्गल राचि अपनपौ भूल्यौ, विरधा करत इलाज | अबहिं जथाविधि वेगि वतावो, वुधजनके सिरताज ॥ हरना ॥ ३ ॥ २१ रोग - पूरवी । भजन विन यौं ही जनम गमायो । भजन ॥ टेक || पानी पैल्यां पाल न वांधी, फिर पीछें पछतायो ॥ भज ॥ १ ॥ रामा-मोह भये दिन खोबत आशापाश बँधायो । जप तप संजम दान न दीनों, मानुष जनम हरायो ॥ भजन ॥ २ ॥ देह सीस जब कापन लागी ; दसन चला वल धायो । लागी आगि भुजावन कारन, चाहत आप
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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