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________________ यादादम.'ला होती है अर्थात् विचारवान् या तो अपने प्रयोजनसे किसी कार्यको करते है, और या करुणाबुद्धिको धारणकर परोपकारके भाग.जै.शा. लिये किसी कार्यको करते है । इस कारण यह ईश्वर जगतके रचनेमें खार्थसे व्यापार करता है ? अथवा करुणाभावसे व्यापार | करता है, अर्थात् लगता है । यदि कहो कि, ईश्वरकी जगतकी रचनामें स्वार्थसे प्रवृत्ति होती है, सो तो नहीं । क्योंकि वह ईश्वर कृतकृत्य है अर्थात् उसको कोई भी कार्य करना न रहा, इस कारण कृतार्थ है । यदि कहो कि ईश्वर जगतकी रचनामें कारुण्यसे प्रवृत्ति करता है । सो भी नहीं। क्योंकि दूसरेके दुःखोंको दूर करनेकी जो इच्छा है, वह कारुण्य कहलाता है, इसकारण ईश्वरने जब जगत नहीं रचा था, उस समय जीवोंके इद्रिय, शरीर और विषयोंकी उत्पत्ति न होनेसे दुःखका अभाव था अर्थात् नइंद्रिय, शरीर तथा विषयोंसे दुःख उत्पन्न होता है और वे इद्रियआदि जीवोंके थे नही, फिर किसको दूर करनेकी इच्छा हुई जिससे कि, ईश्वरने कारुण्यसे जगतको रचा। और जगतको रचनेके पीछे दुःखी जीवोंको देखकर ईश्वरने कारुण्य धारण किया, ऐसा मानो तो इतरेतराश्रय (अन्योन्याश्रय ) नामक दोष नही दूर हो सकता है । क्योंकि कारुण्यसे जगतकी रचना हुई और जगतकी रचनासे कारुण्य हुआ। इस कारण ईश्वरके जगतका कर्त्तापना किसी भी प्रकारसे सिद्ध नहीं हो सकता है। तदेवमेवंविधदोषकलुपिते पुरुषविशेषे यस्तेषां सेवाहेवाकः स खलु केवलं बलवन्मोहविडम्बनापरिपाक इति । 1 अत्र च यद्यपि मध्यवर्तिनो नकारस्य घण्टालालान्यायेन योजनादर्थान्तरमपि स्फुरति । यथा 'इमाः कुहेवाकविड म्वनास्तेषां न स्युर्येषां त्वमनुशासक' इति । तथापि सोऽर्थः सहृदयैर्न हृदये धारणीयः। अन्ययोगव्यवच्छेदस्याधिकृतत्वात् । इति काव्यार्थः ॥ ६॥ सो इस प्रकार अनेक दोपोंसे दूषित पुरुषविशेष ( ईश्वर ) में जो वैशेषिकोंका सेवामें आग्रह है, वह बलवान जो मोह है, उसकी विडम्बनाका परिपाक ( उदय अथवा फल) है। और "इमाः कुहेवाकविडम्बनाः स्युस्तेपांनयेषामनुशासकस्त्वम्।" यहां पर मध्यवर्ती जो नकार है, उसका घटालालान्यायसे अन्वय करनेपर दूसरा अर्थ भी निकलता है अर्थात् जैसे-घंटामें जो टोकरी रहती है, यह घटाके दोनों तरफको लगती है, इसीप्रकार मध्यवर्ती नकारका भी दो प्रकारसे अन्वय होता है। जैसे-कि, यह कदा- ॥३६॥ ग्रहरूप विडम्बनायें उनके न होवें, जिनके कि, आप हितोपदेशक है । तथापि यह अर्थ सहृदयों (मर्मवेत्ताओं) को हृदयमें न धारण करना चाहिये । क्योंकि यहां स्तुतिकारने अन्ययोगव्यवच्छेदका अवलम्बन किया है। इस प्रकार काव्यका अर्थ है । ६।५
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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