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________________ अथ चैतन्यादयो रूपादयश्च धर्म्मा आत्मादेर्घटादेश्व धम्मिणोऽत्यन्तं व्यतिरिक्ता अपि समवायसम्बन्धेन संबद्धाः सन्तो धर्म्मधमिव्यपदेशमश्नुवते । तन्मतं दूषयन्नाह । अब “यद्यपि जीवादिक धर्मीसे ज्ञानादिक धर्म और घटादिक धर्मसे रूपआदि धर्म अत्यन्त भिन्न है अर्थात् गुणीसे गुण सर्वथा भिन्न है, तथापि परस्पर भिन्नरूप ये दोनों धर्म और धर्मी समवायसंबधसे परस्पर संबंधको प्राप्त होकर धर्मधर्मिव्यवहारको | अर्थात् यह पदार्थ धर्मी ( धर्मोंको धारण करनेवाला ) है और ये इसमें रहनेवाले धर्म ( गुण) हैं, इस व्यवहारको प्राप्त होते है" इस वैशेषिकोंके मतको दूषित करते हुए ग्रन्थकार इस अग्रिम काव्यका कथन करते हैं । 1 न धर्मधमित्वमतभेदे वृत्त्यास्ति चेन्न त्रितयं चकास्ति । इदमित्यस्ति मतिश्च वृत्तौ न गौणभेदोऽपि च लोकवाधः ॥ ७ ॥ काव्यभावार्थः — धर्म और धर्मीको सर्वथा भिन्न माननेमें धर्मधर्मिव्यवहार नहीं होता है । यदि वादी कहैं कि, समवायसंबंध से परस्पर भिन्नरूप धर्म और धर्मीका एक दूसरेके साथ संबंध हो जाता है, अतः धर्मधर्मिव्यवहार होता है । सो नहीं । क्योंकि जैसे- धर्म और धर्मी इन दोनोंका ज्ञान होता है; उसी प्रकार समवायका ज्ञान नहीं होता है । फिर यदि वादी कहैं कि, 'यहां यह है' इस | प्रकारके इह प्रत्यय से समवायका ज्ञान होता है, तो ' यहां यह है' इस प्रकारकी बुद्धि समवाय में भी | है । इस कारण उस समवाय में संबंधका कारण दूसरा समवाय और उसमें भी दूसरा समवाय मानने| से अनवस्था होगी। यदि वादी कहैं कि, समवायमें समवायत्व गौणरूपसे है । सो भी ठीक नहीं है । और इहप्रत्ययसे समवायको सिद्ध करनेमें लोकसे भी विरोध होता है ॥ ७ ॥ 4 -१ वैशेषिकाणां मते उत्पन्नं द्रव्यं क्षणमगुणं तिष्ठतीति ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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