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________________ नात्मलाभाः सदैव किं न प्रवर्तयन्तीति स एवोपालम्भः । तथा शम्भोरष्टगुणाऽधिकरणत्वे कार्यभेदाऽनुमेयानां तदिच्छानामपि विषमरूपत्वान्नित्यत्वहानिः केन वार्यते । __ फिर भी यदि तुम यही कहो कि, ईश्वर नित्य ही है, तो अस्तु नित्य ही रहो; परंतु तो भी वह ईश्वर सदाकाल जगतके बनानेमें न चेष्टा क्यों नहीं करता है अर्थात् निरंतर जगतको क्यों नहीं बनाता है ? यदि कहो कि, ईश्वर इच्छाके वशसे निरंतर जगतको IN नही रचता है अर्थात् जब ईश्वरको जगतके रचनेकी इच्छा नहीं रहती है, तब जगतका बनाना छोड़ देता है, तो हम पूछते है | कि, अपनी विद्यमानतारूप कारणसे निज खरूपको धारण करनेवाली वे इच्छायें सदा क्यों नहीं प्रवर्ताती है। भावार्थ-इच्छायें जबतक ईश्वरमें विद्यमान रहेंगी तबतक ही इच्छा कह लायेंगी इस कारण वे इच्छायें जगतके रचनेमें ईश्वरको सदा ही क्यों नहीं 1. लगाती है ? इस प्रकार जो पहले उपालंभ था, वही यहां भी हुआ अर्थात् जैसे पहले ईश्वर सदा जगतको क्यों नहीं रचता है। यह दोष दिया है, वैसा ही यहां 'इच्छायें सदा ईश्वरको जगतके रचनेमें क्यों नहीं लगाती है' यह दोष है। और जब तुम | ईश्वरको, बुद्धि १ इच्छा २ प्रयत्न ३ संख्या ४ परिमाण ५ पृथक्त्व ६ संयोग ७ और विभाग ८ इन आठ गुणोंका अधिकरण 10 मानते हो अर्थात् ईश्वरमें बुद्धि आदि ८ गुण सदा समानरूपसे रहते है ऐसा कहते हो, तब कार्यभेदसे अनुमान करनेयोग्य ऐसी || INIजो ईश्वरकी इच्छाये है, उनकी विषमरूपतासे उत्पन्न हुई नित्यताकी हानिको कौन दूर करेगा । भावार्थ-ईश्वरमें इच्छायें सदा II | समान रहनी चाहिये । परतु जगतमें जो नाना प्रकारके कार्य देखते है, इससे अनुमान होता है कि, ईश्वरकी इच्छायें भी नाना || प्रकारकी है अर्थात् विषम है और जब ईश्वरकी इच्छायें विषम हुई तो ईश्वर अनित्य होयगा। किञ्च प्रेक्षावतां प्रवृत्तिः स्वार्थकारुण्याभ्यां व्याप्ता । ततश्चायं जगत्सर्गे व्याप्रियते स्वार्थात्कारुण्याद्वा । न सतावत्स्वार्थात्तस्य कृतकृत्यत्वात् । न च कारुण्यात्परदुःखग्रहाणेच्छा हि कारुण्यम् । ततः प्राक्सर्गाज्जीवानामिन्द्रि यशरीरविषयानुत्पत्तौ दुःखाभावेन कस्य प्रहाणेच्छा कारुण्यम् । सर्गोत्तरकाले तु दुःखिनोऽवलोक्य कारुण्याऽभ्युपगमे दुरुत्तरमितरेतराश्रयम् । कारुण्येन सृष्टिः सृष्ट्या च कारुण्यम् । इति नास्य जगत्कर्तृत्वं कथमपि सिद्ध्यति । और भी विशेष यह है कि, जो प्रेक्षावान् ( विचारशील ) पुरुष है, उनकी प्रवृत्ति स्वार्थ और कारुण्यसे व्याप्त १ बुद्धीच्छाप्रयत्नसंख्यापरिमाणपृथक्त्वसयोगविभागाख्याप्टगुणाधिकरणत्वे ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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