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________________ राजै.शा स्थाद्वादमं. ॥३५॥ करे । क्योंकि जैसे आकाश जगत रचनेरूप खभावका धारक नहीं है, इसकारण जगतको नहीं रचता है, वैसे ही ईश्वर भी जगतके 1 रचनेके स्वभाववाला न होनेसे जगतको नहीं रच सकता है। और भी विशेप यह है कि, यदि ईश्वर सर्वथा नित्यखभावका ही धारक होवे तो जैसे उसके नित्य होनेसे जगतकी रचना सिद्ध नहीं होती है, वैसे ही ईश्वरकी नित्यतामें जगतका संहार ( नाश धू अथवा प्रलय ) भी नहीं सिद्ध होता है। क्योंकि वह ईश्वर जिस स्वभावसे तीनों लोकोंकों रचता है, उसी स्वभावसे उन तीनों लोकोंका नाश करता है ? वा किसी दूसरे खभावसे तीन जगतका संहार करता है ? यदि कहो कि, ईश्वर जिस स्वभावसे जगतको रचता है, उसी खभावसे जगतको नष्ट भी करता है, तब तो जगतकी रचना और जगतका नाश ये दोनों एक ही समयमें होवें. . ऐसा प्रसग होगा । कारण कि स्वभावका अभेद है. अर्थात् ईश्वर जगतके रचने और नष्ट करनेमें एकही स्वभावका धारक है। है क्योंकि एक स्वभावरूप जो कारण है, उससे अनेक स्वभावरूप कार्योंकी उत्पत्तिमें विरोध है । अर्थात् एक स्वभावरूप कारणसे अनेक स्वभाववाले कार्य नहीं हो सकते है। यदि कहो कि, ईश्वर जिस स्वभावसे जगतको रचता है, उसी स्वभावसे जगतका नाश नही करता है, किन्तु दूसरे स्वभावसे जगतका संहार करता है, तो ईश्वरके जो नित्यता है, उसका नाश हो जावेगा । क्योंकि जो । स्वभावका भेद है, वही अनित्यका लक्षण है । जैसे कि-आहारके परमाणुओंसे सहायको प्राप्त हुआ जो पार्थिव शरीर है, उसमें प्रतिदिन अपूर्व अपूर्व उत्पत्ति होनेके कारण स्वभावका भेद है, इसकारण वह अनित्य है। भावार्थ-जैसे हमारे तुम्हारे शरीरमें प्रतिदिन नवीन नवीन आकृति आदि होनेसे स्वभावका भेद है और स्वभावभेदके होनेसे ही हमारा तुम्हारा शरीर अनित्य है, उसी प्रकार ईश्वरके स्वभावका भेद माननेपर ईश्वर भी अनित्य हो जावेगा। और जगतकी रचना तथा सहारमें शभु (ईश्वर)के स्वभावका भेद होना तुमको इष्ट ही है । क्योंकि तुमने 'ईश्वर रजोगुणरूप होकर जगतकी रचनामें, तमोगुणखरूपका धारक होकर जग-1 तके नष्ट करनेमें और सात्विकपनेसे जगतकी स्थिति (रक्षा) में व्यापार करता है, ऐसा स्वीकार किया है। और इस प्रकार भिन्न २ Y गुणरूप होकर कार्य करनेमें ईश्वरकी अवस्थायें भी जुदी जुदी हुई और उन जुदी २ अवस्थाओके होनेसे अवस्थाओंका धारक 2. जो ईश्वर है, उसका भी भेद हुआ अर्थात् रजोगुणरूप अवस्थाका धारक जो ईश्वर है, उस ईश्वरसे तमोगुणरूप अवस्थावाला ईश्वर " भिन्न हुआ। और ऐसा हुआ तो ईश्वरकी नित्यताका नाश हुआ अर्थात् ईश्वर नित्य न रहा। अथास्तु नित्यः सस्तथापि कथं सततमेव सृष्टौ न चेष्टते । इच्छावशाच्चेन्ननु ता अपीच्छाः स्वसत्तामात्रनि ३५॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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