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________________ जबतक कर्मशक्ति क्लेशोंसे बंधी है तभीतक संसाररूपी अंकुर उत्पन्न करसकती है; जब क्लेश छूट जानेसे कर्ममेंसे वीजपना नष्ट होजाता है तब उससे विपाक फल नहीं होसकता। उस विपाकके भेद तीन है; जाती, आयु तथा भोग। | अक्षपादोऽप्याह “न प्रवृत्तिः प्रतिसंधानाय हीनक्लेशस्य" इति। एवं विभङ्गज्ञानिशिवराजर्षिमतानुसारिणो दूषलायित्वोत्तरार्द्धन भगवदुपज्ञमपरिमितात्मवादं निर्दोषतया स्तौति षड्जीवेत्यादि । त्वं तु हे नाथ अनन्तसंख्य|||मनन्ताख्यसंख्याविशेषयुक्तं षड्रजीवकायम्। KEL न्यायदर्शनके मुख्य प्रवर्तक अक्षपादने (कणादने) भी ऐसा ही कहा है कि जिसके क्लेश क्षीण होगये हैं उसकी प्रवृत्ति भी बंधका कारण नहीं है" । इस प्रकार पहिले आधे श्लोक द्वारा विभंग (खोटे) ज्ञानवाले शिवराज ऋषिके मतानुसारियोंको सदोष ठहराकर श्लोकके उत्तर आधे भागद्वारा निर्दोष सिद्ध होनेके कारण भगवत्कथित जीवोंकी अनंतताके उपदेशकी स्तुति करते है। "षड्जीवकायं त्वमनन्तसंख्यमाख्यस्तथा नाथ ! यथा न दोषः" यह श्लोकका उत्तर भाग है। इसका अर्थ-हे नाथ ! आपने ही संपूर्ण छह प्रकारके जीवोंकी अनंतनामक एक प्रकारकी अपरिमित संख्या बताई है और वह ऐसी है कि जिसमें किसी प्रकारका दोष आही नही सकता है। ___ अजीवन् जीवन्ति जीविष्यन्ति चेति जीवा, इन्द्रियादिज्ञानादिद्रव्यभावप्राणधारणयुक्ताः। तेषां ["संघे वानूमर्चेइति चिनोतेञि आदेश्च कत्वे कायः समूहो जीवकायः पृथिव्यादिः। षण्णां जीवकायानां समाहारः षड्रजी-1 विकायम् । पात्रादिदर्शनान्नपुंसकत्वम् । अथवा षण्णां जीवानां कायः प्रत्येक संघातः षड्जीवकायः। तं षड्जी-|| लवकायम् । पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसलक्षणषड्जीवनिकायं तथा तेन प्रकारेण आख्यः, मर्यादया प्ररूपितवान्, | यथा येन प्रकारेण न दोषो, न दूषणमिति । जात्यपेक्षमेकवचनम् । प्रागुक्तदोषद्वयजातीया अन्येऽपि दोषा यथा|||| न प्रादुष्यन्ति तथा त्वं जीवानन्त्यमुपदिष्टवानित्यर्थः । 'आख्यः' इति आङ्पूर्वस्य ख्यातेरडि सिद्धिः । त्वमित्येकवचनं चेदं ज्ञापयति यजगद्गुरोरेवैकस्येदृक्प्ररूपणसामर्थ्य, न तीर्थान्तरशास्तृणामिति । जो भूत कालमें भी जीते रहे अर्थात् प्राण विशिष्ट वने रहे, वर्तमान में भी प्राणविशिष्ट है तथा आगे भी प्राण सहित रहेंगे उनको जीव कहते है । अर्थात् जो इंद्रियादि दश द्रव्यप्राणोंद्वारा तथा चेतनाआदि भावप्राणोंके द्वारा जीते हों वे जीव है। -
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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