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________________ सादादम.M" सधे वाऽनू" इस व्याकरणसूत्र के अनुसार 'चि' धातुके आगे 'यम्' प्रत्यय होनेने तथा 'न'को 'क' करदेनेसे काय दादरा .ज.प्रा. बनजाता है । कायका अर्थ समूह होता है। ऊपर को हुए. जीवोके मनहीको जीपाय करते। पृथिवी, जल, अमि, वायु,': ॥२०९|| वनस्पति ये पाच स्थावर तथा त्रस ऐसे छह कार्योंके जोरोके ममूहको परजीवकाय मदते हैं। याकरणमें जहापर समूह नर्थ देर । अनेक शब्दोका समास (सग्रह) दिखाया है वापर ऐसा कहा है कि पानशब्दादि कतने ऐसे गन्द जो समागमें ननदलिज ही होजाते हैं। उन्ही पात्रादि शब्दों में पद्जीवकार गन्द्रको माना गदापर नपुनामी पदीया ऐसा कहा है। अथवा । समूह अर्थमं समास न करके इस प्रकारसे समास करनेपर शब्द पुटिन ही बना रहेगा कि सदनातकेजीयोका जो प्रत्येक सघात है उसको पड्जीयकाय कहते हैं। पुलिली रहनेसे यपि पन्तीव कायः ऐसा होना नादिये परंतु इन सोने गह गन्न कर्मकारकरूप रक्खागया है इसलिये पुलिन्न होनेपर भी चर्मकारक पदीय काय' पेमा महागया है। राव शब्द नातिवानक 'माने जाते है तब वे एक वचनात ही रारो जाते हैं। यहाएर भी जातिकी उपेक्षाही पनीरकाय' प्रेमा पकाननान्त माहे।। सारांश-जीयोंको परिमित माननेमें मभव जो दोष है वे नया और भी अनेक दोषम प्रफार वर्णन करनेमे नही आगते ।। उस प्रकारसे आपने जीवोका वर्णन किया है। आर्यकन्या भानुके आने पर प्रत्यय -गानेने भूनकारके वर्ष, नाम्य.' ऐमा क्रियापद बनता है । 'लम्' गन्दको एक बननान्न सनेसे यह अभिप्राय प्रस्ट होता है कि ऐसे निर्दोष उपदेश रनेका सामर्थ्य एकमात्र त्रिजगद्गुरुका (आपका) दी है न कि अन्य भी पों या मनोरे उपदेश करनेकालोका । ___ पृथिव्यादीनां पुनर्जीवत्वमित्थं साधनीयम् । यथा मात्मिका विद्यमशिलादिस्पा पृथिवी; ठेदे ममानधातुत्यानादर्भाऽबरवत् । भौममम्भोऽपि सात्मकं क्षतभूमजातीयस्य स्वभावस्य सम्भवात् शालूरवत् । आन्तरिक्षमपि सात्मकम् । अभ्रादिविकारे स्वतः सम्भूय पातात् मत्स्यादिवत् । ___ छह कायके जीव बताते हुए बीतने जो पृथिवीनीयादिफ जीव को है उनकी सिदि इस प्रकारसे करनी चाहिये कि जैसे मूंगा । पापाणादि जो पृथिवी है वह सजीय है। क्योंकि जैसे काटनेपर डाम, तुर उप माना है उसी प्रकार इगो भी काटनेपर ) ॥२०॥ इसमें पहिलेके समान मूगा या पाषाणादि फिरसे ऊग आते हैं। इसी प्रकार भूमिका जल भी सनीय है। क्योंक्ति ममिके जलका दरिया, रति जियपुग्मकपाट ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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