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________________ स्याद्वादम. ॥२०॥ खरूप है । परिमित होनेसे किसी समय जब सभी जीव इस संसारसे निकलकर मुक्त होनेवाले है तब तो अगत्या यह संसार है। राजै.शा. उनसे रिक्त कहना पड़ेगा । क्योंकि, उत्तर देनेका दूसरा कोई मार्ग ही नहीं है। मुक्तैर्वा पुनर्भवे आगन्तव्यम् । न च क्षीणकर्मणां भवाधिकारः "दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्करः" इति वचनात् । 7 जो संसारका खाली होना भी नही मानते तथा जीवोंको परिमित ही मानते है उनको मुक्त हुए जीवोंका ससारमें फिरसे लौटना मानना चाहिये । परंतु यथार्थमें विचार किया जाय तो जो कर्मोंका नाश करके मुक्त होगये है वे फिर संसारमें नहीं आसकते । है। क्योंकि, उनके यहां आनेका कारण कोई बाकी नहीं रहा है। संसारमें भ्रमानेके कारण कर्म है सो वहां उन कर्मोंका सर्वथा । नाश होचुका है। कहा भी है कि "जिस प्रकार कोई बीज जो उपजानेका कारण है यदि सर्वथा जलजाय तो फिर उससे अंकुर नहीं ऊगसकता है उसी प्रकार यदि कर्मरूपी बीज जो कि संसारकी उत्पत्तिका कारण है, सर्वथा दग्ध होजाय तो फिर उससे जीवमें संसाररूपी अंकुर नहीं निकल सकता है"। भू आह च पतञ्जलिः “सति मूले तद्विपाको जात्यायु गाः" इति । एतट्टीका च "सत्सु क्लेशेषु कर्माशयो विपाM कारम्भी भवति, नोच्छिन्नक्लेशमूलः । यथा तुषावनद्धाः शालितण्डुला अदग्धवीजभावाः प्ररोहणसमर्था भवन्ति नाऽपनीततुषा दग्धबीजभावा वा। तथा क्लेशावनद्धः कर्माशयो विपाकप्ररोही भवति; नाऽपनीतक्लेशो न दग्धबीजभावो वेति । स च विपाकस्त्रिविधो जातिरायुर्भोगः" इति । . वैदिक योगमतके प्रवर्तक पतंजलिने भी कहा है कि "मूल कारण रहनेपर ही जाति, आयु तथा भोग होते हैं । ये जाति, है आयु, भोग उसी मूल कारणके विपाकरूप है" । इसकी टीका इस प्रकार है कि “जबतक क्लेश रहते है तभीतक कर्मोंकी शक्ति - अपना विपाकफल देसकती है । जब क्लेशरूप मूल कारणका उच्छेद होजाता है तब कर्मोंका विपाकफल नहीं होसकता। ॥२०८॥ जिस प्रकार शाली चावलोंपरसे जबतक ऊपरका तुप नहीं उतार दिया जाता है तभीतक उनमें बीजपना बनारहता है और वोनेपर , वे उपज सकते हैं परंतु जब उनके ऊपरसे तुष उतार दिया जाय तो बीजपनेका नाश होजानेसे वे उपज नहीं सकते है। उसी प्रकार
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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