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________________ राज-शा. स्थाद्वादम-कानही है कि एक वस्तुमें अनेक खभाव यदि रहै तो क्या हानि है। क्योंकि; एक ही वस्तुमें यदि अनेक स्वभावोंकी सत्ता मानी जायगी तो उस वस्तुको विरोधरूपी व्याघ्र सूंघने लगैघा । उस विरोधको आगे दिखाते है। ॥२०॥ l यद्येकः स्वभावः कथमनेकोऽनेकश्चेत्कथमेकः? एकाऽनेकयोः परस्परपरिहारेणाऽवस्थानात् । तस्मात्स्वरूपनिमग्नाः परमाणव एव परस्परोपसर्पणद्वारेण कथंचिन्निचयरूपतामापन्ना निखिलकार्येषु व्यापारभाजः। इति त एव स्वलक्षणं, न स्थूलतां धारयत् पारमार्थिकमिति । एवमस्याभिप्रायेण यदेव स्वकीयं तदेव वस्तु, न परकीयम्; अनुपयोगित्वादिति। all अनेक खभाव एक ही वस्तुमें माननेसे विरोध आने लगता है । क्योंकि जितने स्वभाव होते है वे एक दूसरेसे विरुद्ध होते "है । यदि विरुद्धखभाववाले न हों तो उन खभावोमें अनेकपना ही कैसा ? और जो परस्पर विरुद्ध खभाववाले होते है वे एक स्थानमें किसी प्रकार नहीं रह सकते हैं । तथा यदि एक ही स्वभाव है तो अनेक खभाव कैसे ? और यदि अनेक खभाव है तो उनको एक कैसे कह सकते है क्योंकि; एकपना तथा अनेकपना ये दोनों धर्म परस्परमें विरोधी होनेसे एक स्थानमें नहीं रह सकते है। किंतु एक स्थानमें एक ही रहेगा। इसलिये अपने अपने खरूपमें निमग्न ऐसे परमाणु ही परस्परमें एक दूसरेके साथ निमित्त पाकर इकट्ठे होते हुए संपूर्ण कार्योंको करते है और इसलिये वे शुद्ध परमाणु ही यथार्थ वस्तु है; न कि जो स्थूल रूपको | धारण करते है ऐसे कोई स्थूल पदार्थ परमार्थ वस्तु हो । इस प्रकार जब इस नयकी अपेक्षा देखते है तो जितना शुद्ध एक एक निज वस्तु है वही केवल सच्ची वस्तु है और जो पररूप है अथवा जो अनेक परमाणुओंके समूहसे उत्पन्न हुई दीखती है वह ४ कोई सच्ची वस्तु नही है। क्योंकि, ऐसी वस्तुका कुछ उपयोग नहीं हो सकता है। सच्चा उपयोग परमाणुओंसे ही हो सकता है। शब्दस्तु-रूढितो यावन्तो ध्वनयः कस्मिंश्चिदर्थे प्रवर्तन्ते; यथेन्द्रशक्रपुरन्दरादयः सुरपतौ तेषां सर्वेपामप्येक मर्थमभिप्रेति किल । प्रतीतिवशाद्यथा शब्दाऽव्यतिरेकोऽर्थस्य प्रतिपाद्यते तथैव तस्यैकत्वमनेकत्वं वा प्रतिपादनीयम् । न चेन्द्रशक्रपुरन्दरादयः पर्यायशब्दा विभिन्नार्थवाचितया कदाचन प्रतीयन्ते; तेभ्यः सर्वदैकाकारपरामशी 'सुरपतौ ' इति पाठो नास्त्येव खपुस्तके । ॥२०॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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