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________________ पत्तेरस्खलितवृत्तितया तथैव व्यवहारदर्शनात् । तस्मादेक एव पर्यायशब्दानामर्थ इति; शव्द्यते आहूयतेऽनेनाऽभिप्रायेणार्थ इति निरुक्तादेकार्थप्रतिपादनाभिप्रायेणैव पर्यायध्वनीनां प्रयोगात् । पांचवें शब्दनयकी प्रधानता होनेपर जितने कुछ शब्द रूढिके वशसे किसी एक पदार्थमें लगसकते है उन संपूर्ण शब्दोंका वाच्य अर्थ एक ही समझा जाता है। जैसे इंद्र, शक्र-पुरंदरादिक शब्द एक इन्द्रनामक देवोंके राजामें लगसकते है इसलिये| इन संपूर्ण शब्दोंका अर्थ एक देवराज ही मानना सो शब्दनय है। जिस प्रकार वाचक शब्दसे पदार्थको अभिन्न मानते है।। क्योंकि, प्रतीति ऐसा ही खीकार करती है। उसी प्रकार प्रतीतिगोचर होनेके कारण उन संपूर्ण शब्दोंके अर्थको भी एक मानसकते है। इन्द्र, शक, पुरंदर आदिक जो पर्यायवाची शब्द होते है उनके अर्थ जुदे जुदे प्रतीत नहीं होते । क्योंकि उनमेंसे किसी भी। एक शब्दके वोलनेसे उसी एक पदार्थकी प्रतीति होती है तथा लाना लेजाना आदिक क्रिया भी उसी एक की होती दीखती है। इसलिये जितने पर्यायवाची शब्द होते है उन सवोंका वाच्य अर्थ एक ही होना चाहिये। 'शब्द' धातुका अर्थ वोलना है। जिस Kला अभिप्रायसे अर्थ कहाजाता है उसको शब्द कहते है ऐसा शब्दनयका अर्थ करनेसे यह समझ सकते हैं कि जितने पर्यायवाची | शब्द होते है वे सब एक ही अभिप्रायकी मुख्यतासे बोले जाते है इसी लिये उन सब शब्दोका अर्थ एक ही समझना चाहिये ।। AT यथा चाय पर्यायशब्दानामेकमर्थमभिप्रेति तथा तटस्तटी तटमिति विरुद्धलिङ्गलक्षणधर्माभिसंवन्धाद्वस्तुनो भेदं चाभिधत्ते । न हि विरुद्धधर्मकृतं भेदमनुभवतो वस्तुनो विरुद्धधर्माऽयोगो युक्तः। एवं संख्याकालकारIN|| कपुरुषादिभेदादपि भेदोऽभ्युपगन्तव्यः । तत्र संख्या एकत्वादिः । कालोऽतीतादिः । कारकं कादि । पुरुषः प्रथमपुरुषादिः। शब्द नय जिस प्रकार पर्यायवाची अनेक शब्दोंका अर्थ एक समझाता है उसीप्रकार विरुद्ध लिगवाले शब्दोंके वाच्य अर्थको लिङ्गभेदके कारण भिन्न भिन्न भी प्रतीत कराता है । जैसे पुल्लिङ्ग तट शब्दका अर्थ कुछ अन्य है तथा स्त्रीलिङ्गवाले तटी शब्दका | अर्थ कुछ जुदा है और नपुंसकलिङ्गवाले तट शब्दका कुछ और ही है। जिस वस्तुमें विरुद्ध धर्मके कारण भेदका अनुभव होता ||| हो वह विरुद्धधर्मवाला नही है ऐसा कहना असगत है । क्योंकि यथार्थमें यदि उस वस्तुमें एक दूसरी वस्तुकी अपेक्षा विरुद्ध धर्म नही रहता हो तो उन दोनोंमें भेद दृष्टिगत क्यों हो?। जिस प्रकार एक ही शब्दमें लिङ्गका भेद होनेसे उसके अर्थ भेद
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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