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________________ 1 होनेवाले पर्यायोंका आश्रयभूत ऐसा कोई एक एक पदार्थ अथवा क्षणक्षण में नष्ट होंनेवाले परमाणुखरूप विशेष पदार्थ किसी भी लौकिक उपयोग में नहीं आते हैं इसलिये वे यथार्थमें सत्यार्थ पदार्थ ही नहीं है । क्योंकि; सच्चे पदार्थ वे ही है जो लौकिक प्रयोजनमें आ सकते है । इसीलिये मार्ग चलता है; कुंडी वहती है, पर्वत जल रहा है, पलंग चिल्लाते इत्यादि लौकिक व्यवहार प्रमाणभूत माने जाते है । ग्रन्थकर्ताओंके शिरोमणि तत्त्वार्थाधिगमभाष्यके कर्ताने भी ऐसा ही कहा है "जो लौकिक व्यवहारके अनुसार हो, जिसका शरण उपचार हो तथा जिसका लौकिक प्रयोजन अधिक हो वह व्यवहार नय है" । ऋजुसूत्रः पुनरिदं मन्यते । वर्तमानक्षणविवर्त्येव वस्तुरूपं नाऽतीतमनागतं च । अतीतस्य विनष्टत्वादनाग| तस्याऽलब्धात्मला भत्वात्खरविषाणादिभ्योऽविशिष्यमाणतया सकलशक्तिविरहरूपत्वान्नार्थक्रियानिर्वर्तनक्षमत्वम् । तदभावाच्च न वस्तुत्वं; यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसदिति वचनात् । वर्तमानक्षणालिङ्गितं पुनर्वस्तुरूपं | समस्तार्थक्रियासु व्याप्रियत इति तदेव पारमार्थिकम् । तदपि च निरंशमभ्युपगन्तव्यम्; अंशव्याप्तेर्युक्तिरिक्तत्वात्ः | एकस्याऽनेकस्वभावतामन्तरेणाऽनेकस्वावयवव्यापनाऽयोगात् । अनेकस्वभावतैवाऽस्त्विति चेन्न विरोधव्याघ्राघातत्वात् । तथा हि । चौथा ऋजुसूत्र न मानता है कि न तो अतीत ही वस्तुका खरूप है और न आगामी ही, किंतु जो शुद्ध वर्तमान समय में | विद्यमान है वही वस्तुका खरूप है। जो बीत चुका है वह तो विनष्ट हो चुकनेसे तथा जो आगामी है वह अभी पैदा ही नहीं हुआ है इससे ये दोनो प्रकारके पर्याय सर्वथा गधेके सींगोके ही समान है । इसलिये संपूर्ण सामर्थ्यरहित होने से इनके द्वारा | किसी भी प्रयोजनकारी क्रियाकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है । यदि इससे प्रयोजनकारी क्रिया ही नही हो सकती है तो यह वस्तु कैसा ? ऐसा कहा भी है कि " जो अर्थक्रियाकारी होता है उसीको यथार्थमें वस्तु कहना चाहिये " । और जो वस्तु वर्तमान क्षणमें विद्यमान होता है वही संपूर्ण प्रयोजनीभूत क्रियाओंको करता है इसलिये उसीको यथार्थ वस्तु कहना उचित है । वर्तमानकालीन भी जो निरंश हों वही वस्तु कहा जा सकता है । क्योंकि; अनेक अंशविशिष्ट किसी एक वस्तुको माननेमें कोई प्रमाण ही नही है । यदि एक ही वस्तु अपने अनेक अवयवोंमें व्याप्त होती हुई मानी जाय तो वह अनेक प्रकारके स्वभाव धारण किये विना नहीं व्याप्त हो सकती है और एक ही वस्तुमें अनेक स्वभावोंका होना असंभव है । और यह कहना भी ठीक
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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