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________________ पाद्वादमं. ॥१९८॥ एक अंशका जो विचार करना है वह नय है । वस्तु तो प्रत्येक अनंत धर्मसहित है परंतु विवक्षित किसी एक धर्मरूप उस वस्तुको राजै शा. जो सिद्ध करै अथवा आरोपित करै वह नय है । अर्थात् प्रत्येक वस्तु अनंतो धर्मवाली होती है उनमेंसे किसी एक धर्मकी मुख्यता करके किसी वस्तुको उसी एक विवक्षित धर्ममय कहना तथा मानना सो नय है। नय सदा तभी प्रवर्तता है तथा उसी वस्तुमें प्रवर्तता है जब जो वस्तु प्रमाणज्ञानद्वारा जानी जा चुकती है। नयाश्चानन्ता अनन्तधर्मत्वाद्वस्तुनस्तदेकधर्मपर्यवसितानां वक्तुरभिप्रायाणां च नयत्वात् । तथा च वृद्धाः “जावइया वयणपहा तावइया चेव हुँति नयवाया" इति । तथापि चिरन्तनाचार्यैः सर्वसंग्राहिसप्ताभिप्रायपरिकल्पनाद्वारेण सप्त नयाः प्रतिपादिताः। तद्यथा । नैगमसंग्रहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरूद्वैवंभूता इति । कथमेषां सर्वग्राहकत्वमिति चेदुच्यते । अभिप्रायस्तावदर्थद्वारेण शब्दद्वारेण वा प्रवर्तते; गत्यन्तराऽभावात् । तत्र ये केचनार्थनिरूपणप्रवणाः प्रमात्रभिप्रायास्ते सर्वेऽप्याये नयचतुष्टयेऽन्तर्भवन्ति । ये च शब्दविचारचतुरास्ते शब्दादिनयत्रये इति। नय वस्तुके उसी एक धर्मको ग्रहण करता है जो वक्ताको इष्ट हो । प्रत्येक वस्तुमें धर्म अनंतो होते है इसलिये नय भी ॐ अनंतो ही हो सकते है । पूर्वाचार्योंने ऐसा ही कहा है कि "जितने प्रकारसे वचन बोले जा सकते है उतने ही प्रकारके नय हैं"। इस प्रकार यद्यपि नय बहुत है परंतु उन संपूर्ण नयोंका अभिप्राय वक्ष्यमाण सात प्रकारके भेदोंमें ही अन्तर्गत हो जाता है इसलिये पूर्वाचार्योंने नयोंको संक्षेपसे सातप्रकार ही कहा है; नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ, एवंभूत । इन्ही सात ) प्रकारोमें संपूर्ण नयोंके अभिप्राय जिस प्रकार अन्तर्हित हो सकते है सो दिखाते है। अभिप्रायका प्रगट करना या तो किसी पदार्थके द्वारा हो सकता है अथवा किसी शब्द द्वारा हो सकता है। तीसरा तो कोई मार्ग ही नही है। इनमेसे जो * अभिप्राय ऐसे है जिनका प्रगट करना पदार्थोद्वारा हो सकै वे तो सर्व आदिके चार नयोंमें गर्भित हो जाते है और जो विचार शब्दद्वारा प्रगट हो सकते है उनका अन्तर्भाव अंतके शब्दादि तीन नयोमें होता है। ॥१९८॥ तत्र नैगमः सत्तालक्षणं महासामान्यमवान्तरसामान्यानि च द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादीनि तथाऽन्त्यान्विशेषान्सकलाऽसाधारणरूपलक्षणानऽवान्तरविशेषांश्चाऽपेक्षया पररूपव्यावर्त्तनक्षमान सामान्यादत्यन्तविनिलुंठितस्वरूपान
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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