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________________ भिप्रैति । इदं च स्वतन्त्र सामान्यविशेषवादे क्षुण्णमिति न पृथक्प्रयत्नः । प्रवचनप्रसिद्धनिलयनप्रस्थदृष्टान्तद्वयगम्यश्चायम् । संग्रहस्तु अशेषविशेषतिरोधानद्वारेण सामान्यरूपतया विश्वमुपादत्ते । एतच्च सामान्यैकान्तवादे | प्राक् प्रपञ्चितम् । इन सातोंमेंसे आदिका जो नैगम नय है वह सत्रूप महासामान्यको तथा द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्वादिरूप अवान्तर सामान्योको एवं प्रत्येक स्थूल पदार्थोंमें रहनेवाले विशेषोंको तथा जिनका खरूप सामान्य धर्मकी अपेक्षा सर्वथा उलटा और अपेक्षा करनेपर जिसके द्वारा एक दूसरेका भेदभाव प्रतीतिगोचर होता हो ऐसे सूक्ष्म अवान्तर विशेष धर्मो को ग्रहण करता है । अर्थात् संपूर्ण प्रकार के सामान्य धर्म तथा समग्र प्रकारके विशेष धर्मोंको यह नैगम नय अभेदभावसे स्वीकार करता है । भावार्थ — — यह नय सामान्यविशेषधर्मसहित पदार्थको सामान्यभावसे ग्रहण करता है; किसी भी धर्मको छोड़ता नहीं है। जहांपर सामान्य | विशेष धर्मोंको सर्वथा भिन्न भिन्न माननेवालोंका विचार किया है वहांपर ही सामान्यविशेषात्मकपनेका विवेचन कर चुके हैं और वही विषय नैगम नयका है इसलिये यहांपर फिरसे इसका विचार नहीं करते । इस नैगम नयके दो दृष्टान्त शास्त्रों में प्रसिद्ध है; उन्हीसे इसका खुलासा ज्ञान होता है। उन दो दृष्टान्तों में पहिला तो निलयनका है और दूसरा पंसेरी ( पांचसेरी ) का है । | संग्रह नय जो दूसरा है वह संपूर्ण विशेष धर्मोकी आकांक्षा छोड़कर किसी सामान्य धर्मकी मुख्यता लेकर जितनेमें वह सामान्य धर्म रहता हो उस संपूर्ण विषयको ग्रहण करता है । इस नयके विषयका आलोचन भी सर्वथा सामान्यरूप पदार्थ | माननेवालेका खंडन करते समय कर आये है. । व्यवहारस्त्वेवमाह । यथा लोकग्राहमेव वस्त्वस्तु । किमनया अदृष्टाऽव्यवह्रियमाणवस्तुपरिकल्पनकष्टपिष्टिकया ? यदेव च लोकव्यवहारपथमवतरति तस्यैवाऽनुग्राहकं प्रमाणमुपलभ्यते; नेतरस्य । न हि सामान्यमनादि - | निधनमेकं संग्रहाऽभिमतं प्रमाणभूमिस्तथानुभवाऽभावात् सर्वस्य सर्वदर्शित्वप्रसङ्गाच्च । नापि विशेषाः परमाणुलक्षणा: क्षणक्षयिणः प्रमाणगोचरास्तथा प्रवृत्तेरभावात् । तस्मादिदमेव निखिललोकाऽवाधितं प्रमाणप्रसिद्धं किय|त्कालभाविस्थूलतामाविभ्राणमुदकाद्याहरणाद्यर्थक्रियानिर्वर्तनक्षमं घटादिकं वस्तुरूपं पारमार्थिकम् । पूर्वोत्तरकाल| भावितत्पर्यायपर्यालोचना पुनरज्यायसी ; तत्र प्रमाणप्रसराऽभावात् प्रमाणमन्तरेण विचारस्य कर्तुमशक्यत्वात् ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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