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________________ इस सूत्र से असके स्थान में अस्थ आदेश होकर पीछे जब 'खरादेस्तासु' इस सूत्रकर अस्थके ह्रख अकारको दीर्घ हो जाता है तब 'आस्थः ' ऐसा पद बनजाता है । मुख्यवृत्त्या च प्रमाणस्यैव प्रामाण्यम् । यच्चात्र नयानां प्रमाणतुल्यकक्षताख्यापनं तत्तेषामनुयोगद्वारभूततया प्रज्ञापनाङ्गत्वज्ञापनार्थम् । चत्वारि हि प्रवचनाऽनुयोगमहानगरस्य द्वाराणि । उपक्रमो मिक्षेपोऽनुगमो मयाश्चेति । एतेषां च स्वरूपमावश्यकभाष्यादेर्निरूपणीयम् । इह तु नोच्यते ग्रन्थगौरवभयात् । अत्र चैकत्र कृतसमासान्तः पथिन्शब्दोन्यत्र चाऽव्युत्पन्नः पथशब्दोऽदन्त इति पथशब्दस्य द्विःप्रयोगो न दुष्यति । यद्यपि यथार्थ देखा जाय तो मुख्यपनेसे प्रमाणज्ञानमें ही प्रमाणपना रहता है परंतु तो भी जो नयोंको प्रमाणके तुल्य कहा है सो यह अभिप्राय जतानेके लिये कहा है कि नय जो पदार्थका सच्चा स्वरूप दिखानेवाले माने गये है वे अनुयोगोंके द्वार होनेकी अपेक्षा ही माने गये है । प्रवचन अनुयोगरूपी विशाल नगर में प्रवेश पानेके चार द्वार हैं; उपक्रम, निक्षेप, अनुगम तथा नय । इन द्वारोंका खरूप जानना हो तो आवश्यकभाष्यादि ग्रन्थोंमें कहा है; वहांसे जान लेना । यहांपर ग्रन्थ बढ जानेके भयसे नहीं कहा है । इस लोकमें एक स्थानपर तो समासान्त 'पथिन्' शब्द है तथा दूसरे स्थानपर अव्युत्पन्न अकारान्त 'पथ' शब्द है इसलिये पथ शब्दको दो बार लिखना अनुचित नही है । अथ दुर्नयनयप्रमाणस्वरूपं किञ्चिन्निरूप्यते । तत्रापि प्रथमं नयखरूपं तदनधिगमे दुर्नयस्वरूपस्य दुष्परिज्ञानत्वात् । अत्र चाचार्येण प्रथमं दुर्नयनिर्देशो यथोत्तरं प्राधान्यावबोधनार्थः कृतः । तत्र प्रमाणप्रतिपन्नार्थैकदेशप|रामर्शो नयः । अनन्तधर्माध्यासितं वस्तु स्वाभिप्रेतैकधर्मविशिष्टं नयति प्रापयति संवेदन कोटिमारोहयतीति नयः । प्रमाणप्रवृत्तेरुत्तरकालभावी परामर्श इत्यर्थः । अब दुर्नय, नय तथा प्रमाणका निरूपण कुछ करना चाहिये उसमें भी सबसे प्रथम नयका खरूप दिखाना चाहिये । क्योंकि जबतक नयका खरूप नहीं दिखावेंगे तबतक दुर्नयका खरूप समझना कठिन है । श्लोक में आचार्य महाराजने प्रथम दुर्नय, फिर नय तथा अंतमें प्रमाण शब्द रक्खा है सो इसका अभिप्राय यह है कि प्रमाणता तथा मुख्यता उत्तरोत्तर अधिक है । अर्थात् दुर्नय तो अप्रमाण है नय किसी अपेक्षा प्रमाण है तथा प्रमाण सर्वथा ही प्रमाण है । प्रमाणद्वारा निश्चित किये हुए पदार्थके
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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