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________________ पादान ॥१९७॥ युक्त श्लोकमें जहां पड़ा है वहा ही उसका संबंध नहीं होता किंतु 'त्वमास्थः' इस स्थानमें पड़े हुए 'त्वम्' ऐसे शब्दके साथ राजै.शा. होता है । तथा इस 'तु' शब्दका अर्थ 'ही' अथवा 'निश्चय' होता है। इसलिये श्लोकके अन्तिम भागका अर्थ ऐसा करना चाहिये । कि आप ही दुर्नयरूप खोटे मार्गके मिटानेवाले हों; अन्य कोई भी देव दुर्नयरूप खोटे मार्गको नहीं मिटा सकता है। कैसे 2 3 के सच्चे नय प्रमाणका मार्ग दिखानेसे । नय प्रमाणोंका स्वरूप कह ही चुके है। इन नय प्रमाणोंका सच्चा प्रकास करना ही नय प्रमा णोंके मार्गका दिखाना है । आप सच्चे मार्गको दिखानेवाले इसीसे सिद्ध है कि आप यथार्थदर्शी है। जैसा कुछ पदार्थ है उसको जो तैसा ही देखता हो उसको यथार्थदर्शी कहते है । निर्मल केवलज्ञानरूपी ज्योतिकर आपने ही वस्तुका यथावस्थित खरूप देखा है, और जो अन्यमतोंके प्रवर्तक है वे रागद्वेषादि दोषोंसे कलंकित रहनेके कारण सच्चा ज्ञान नहीं पासके है और इसीलिये वे यथार्थदर्शी नही है । यथार्थदर्शी न होनेसे वे वेचारे दुर्नयरूप खोटे मार्गका निराकरण भी नहीं कर सकते है। न हि स्वयमनयप्रवृत्तः परेपामनयं निषे मुद्धरतां धत्ते । इदमुक्तं भवति । यथा-कश्चित्सन्मार्गवेदी परोपकारदुर्ललितः पुरुषश्चौरश्वापदकण्टकाद्याकीर्ण मार्ग परित्याज्य पथिकानां गुणदोषोभयविकलं दोपाऽस्पृष्टं गुणयुक्तं च मार्गमुपदर्शयति एवं जगन्नाथोऽपि दुर्नयतिरस्करणेन भव्येभ्यो नयप्रमाणमार्ग प्ररूपयतीति । जो खयं ही अनीति मार्गमें पड़ा है वह दूसरोको अनीतिमार्गसे अलग नहीं कर सकता है । कहनेका अभिप्राय यह है कि ५ जिस प्रकार कोई पुरुष सच्चे मार्गको जानता हुआ और परोपकार करनेमें तत्पर होता हुआ जीवोंको खोटे मार्गसे बचानेकी इच्छाकर चोर सिंह व्याघ्रादि भयानक जंतुओंसे तथा कंटक आदि दुःखदाई चीजोसे भरा हुआ मार्ग छुड़ाकर पथिकोको ऐसा मार्ग दिखा देता है जो गुणदोष रहित हो अथवा दोषरहित गुणसहित हो; उसी प्रकार जगत्के नाथ जिनेन्द्र भगवान् भी दुर्नयोंका खंडन १ करते हुए भव्योंको सच्चा नयप्रमाणरूप मार्ग दिखाते है। ___ आस्थ इत्यस्यतेरद्यतन्यां "शास्त्यस्तिवक्तिख्यातेर इत्यङि "श्वयत्यस्तवचपतःश्वास्थवोचपप्तम्" इति स्थादेशे "स्वरादेस्तासु" इति वृद्धौ रूपम् । ॥१९७॥ __ श्लोकके अंतमें जो 'आस्थः' पद है उसका अर्थ निराकरण करना है । अस् धातुके आगे अद्यतनी अथवा लुड् लकारवाचक भूतकालिक प्रत्ययके अर्थमें 'शास्त्यस्तिवक्तिख्यातेरङ्' इस सूत्रसे अङ् प्रत्यय होकर पीछे 'श्वयत्यस्तिवचपतः श्वास्थवोचपप्तम्'
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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