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________________ स्थाद्वादम. ॥१७॥ राजै.शा. तथा उपेक्षा करनेसे द्रव्यपयोयादिखरूपोंकी सिद्धि होती है"। इस प्रकारसे वस्तुमें द्रव्यपना, पर्यायपना हे भगवन् ! आपने ही दिखाया y है, अर्थात् और किसीने भी नहीं दिखाया है । इस प्रकार काकु ध्वनिसे दूसरोमें वस्तुका खरूप दिखानेका निषेध होजाता है। नन्वन्याभिधानप्रत्यययोग्यं द्रव्यमन्याभिधानप्रत्ययविषयाश्च पर्यायाः। तत्कथमेकमेव वस्तूभयात्मकमित्याशङ्कय विशेषणद्वारेण परिहरति-आदेशभेदेत्यादि । आदेशभेदेन सकलादेशविकलादेशलक्षणेन आदेशद्वयेन उदिताः प्रतिपादिताः सप्तसंख्या भङ्गा वचनप्रकारा यसिन् वस्तुनि तत्तथा । ननु यदि भगवता त्रिभुवनवन्धुना निर्वि शेषतया सर्वेभ्य एवंविधं वस्तुतत्त्वमुपदर्शितं तर्हि किमर्थं तीर्थान्तरीयास्तत्र विप्रतिपद्यन्ते इत्याह "वुधरूपवेद्यम्" " इति । वुध्यन्ते यथावस्थितं वस्तुतत्त्वं सारेतरविषयविभागविचारणया इति वुधाः। प्रकृष्टा बुधा वुधरूपा नैसनिकाधिगमिकाऽन्यतरसम्यग्दर्शनविशदीकृतज्ञानशालिनःप्राणिनः। तैरेव वेदितुं शक्यं वेद्यं परिच्छेद्यम् । न पुनः स्वस्वशास्त्रतत्त्वाभ्यासपरिपाकशाणानिशातबुद्धिभिरप्यन्यैः तेषामनादिमिथ्यादर्शनवासनादूपितमतितया यथास्थितवस्तुतत्त्वाऽनववोधेन बुधरूपत्वाऽभावात् । तथा चागमः "सदसदविसेसणाउ भवहेउजहच्छिओवलंभाउ । णाणफलाभावाउ मिच्छादिहिस्स अण्णाणं"। (संस्कृतच्छाया-सदऽसदऽविशेषणात् भवहेतुयथास्थितोपलम्भात्। ज्ञानफलाभावात्, मिथ्यादृष्टेः अज्ञानम् )। शंका-पायोंका नाम तथा ज्ञान अन्य ही होता है और द्रव्यका नाम तथा ज्ञान कुछ अन्य प्रकार ही होता है। फिर एक ही वस्तु द्रव्य पर्याय इन दोनो खरूपमय कैसे होसकती है? इस शकाका उत्तर "आदेशभेदोदितसप्तभङ्गम्" इस विशेषणकर देते है । अर्थात्-स्तुतिकर्ताने जो श्लोकमें आदेशभेद इत्यादि विशेषण लिखा है उससे उपर्युक्त शंका नही रहती है । सकलादेश तथा विकलादेश जो दो आदेश हैं उनके द्वारा सात प्रकारकी जिस कथनशैलीसे वस्तुखरूप दिखाया गया है उससे वस्तुखरूप कथचित् द्रव्यखरूप भी होसकता है और कथंचित् पर्यायखरूप तथा उभयखरूप भी होसकता है । शङ्का-जो तीनो लोकके 1 बंधु ऐसे श्रीभगवान्ने यदि सामान्यपनेकर सभीको वस्तुखरूपका ऐसा उपदेश दिया था तो जो अन्य मतोंके प्रवर्तानेवाले वादी है। वे विवाद क्यों करते है ? इसी शंकाके उत्तरमें "वुधरूपवेद्यम्" ऐसा कहा है। अर्थात्-इस सूक्ष्म तत्त्वको वे ही समझसकते है जो अच्छे विद्वान् हों । सार तथा असारका विवेकपूर्वक विचार करनेवाले जो यथावत् वस्तुखरूपको समझसकते है उनको बुध ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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