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________________ पर्यय अथवा पर्याय इन तीनों शब्दोका अर्थ एक ही है। 'अद्रव्यमेतच्च' इसमें जो 'च' शब्द कहा है उसका अर्थ और, अथवा पुनः है। सो इस च शब्दसे यहां ऊपरकी अपेक्षा कुछ विशेषता और अपूर्वता झलकती है। अर्थात् जब संक्षेपसे देखते है। तब तो वस्तु पर्यायरहित दीखती है और जब विस्तारपूर्वक देखते है तब अनुगतशील द्रव्यको छोड़कर पर्यायरूप ही दीखती| है । जब अनादिसे अनंतकालतक चलनेवाले अनुयायी द्रव्यपनेकी अपेक्षा नही लेते है तब वह वस्तु केवल पर्यायरूप ही है । l यदा ह्यात्मा ज्ञानदर्शनादीन् पर्यायानधिकृत्य प्रतिपर्यायं विचार्यते तदा पर्याया एव प्रतिभासन्ते न पुनरात्माख्यं किमपि द्रव्यम् । एवं घटोऽपि कुण्डलौष्ठपृथुबुध्नोदरपूर्वापरादिभागाद्यवयवापेक्षया विविच्यमानः पर्याय || एव न पुनर्घटाख्यं तदतिरिक्तं वस्तु । अत एव पर्यायास्तिकनयानुपातिनः पठन्ति “भागा एव हि भासन्ते संनिविष्टास्तथा तथा । तद्वान्नैव पुनः कश्चिन्निर्भागः संप्रतीयते” इति । ततश्च द्रव्यपर्यायोभयात्मकत्वेऽपि वस्तुनो द्रव्यनयार्पणया पर्यायनयाऽनर्पणया च द्रव्यरूपता । पर्यायनयार्पणया द्रव्यनयानर्पणया च पर्यायरूपता। उभयनयार्पणया च तदुभयरूपता । अत एवाह वाचकमुख्यः “अर्पितानर्पितसिद्धेः" इति। एवंविधं द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु त्वमेवादीदृशस्त्वमेव दर्शितवान् । नान्य इति काकावधारणावगतिः। __ जब ज्ञानदर्शनादिक पर्यायोंसहित आत्माका विचार करते है तब ज्ञानदर्शनादिक पर्यायोंके सिवाय ऐसा कुछ भी नहीं दीख|ता है जो जुदा आत्मद्रव्य मानाजाय । इसी प्रकार पुद्गल द्रव्योमें भी जब घड़ेकी तरफ देखते है तो कुछ गहरापन, मट्टीका समूह, पाचोड़ा मोटा पेट, आगे पीछेके हिस्से इत्यादि हिस्सोंके सिवाय अन्य कुछ भी नही दीखता है । इन पर्यायोंके अतिरिक्त कोई| दूसरी वस्तु घड़ा नहीं है। इसीलिये पर्यायार्थिक नयकी तरफ मुख्यतासे झुकनेवाले कहते है कि "यथायोग्य स्थानोमें लगे हुए। अंश ही सर्वत्र दीखते है। उन संपूर्ण अंशोंका आधार कोई दूसरा एक अवयवी नही दीखता है। इसलिये वस्तु यद्यपि द्रव्यका पर्याय इन दोनो नयखरूप है परंतु जब द्रव्यार्थिक नयकी मुख्यता तथा पर्यायार्थिक नयकी अप्रधानता लेते है तव वस्तु अना धनंत द्रव्यखरूप समझमें आता है। और जब पर्यायार्थिक नयकी तो योजना करते हैं किंतु द्रव्यार्थिककी नही करते है तब वस्तु पर्यायखरूप समझा जाता है । और जब दोनों नयोंकी अपेक्षा करते हैं तब वस्तुका स्वरूप द्रव्यात्मक भी समझा जाता है तथा पर्यायात्मक भी समझा जाता है। इसलिये शास्त्रकर्ताओंमें प्रधान तत्त्वार्थ सूत्रके कर्ता श्रीउमाखामी कहते हैं कि "नयोंकी अपेक्षा || al
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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