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________________ कहते है । जो बुधोंमें प्रकृष्ट हों वे बुधरूप कहलाते हैं। जो जाना जा सकता हो निश्चय किया जा सकता हो ऐसे वस्तुखरूपको वेद्य कहते हैं । अर्थात्-खतःखभाव ही उपजनेवाले अथवा किसी दूसरेके उपदेशसे उपजनेवाले सम्यग्दर्शनके द्वारा जिनका ज्ञान निर्मल होचुका है वे ही जीव वस्तुका सच्चा खरूप समझ सकते हैं; न कि अन्य भी मनुष्य जो कि अपने अपने शास्त्रोमें कहे हुए तत्त्वोंका अभ्यास करनेसे बुद्धिको परिपक्क शाण (शाम) पर तीक्ष्ण नहीं करसके है। क्योंकि अनादि मिथ्यादर्शन कर्मकी वासनासे उनकी बुद्धि इतनी मलिन होरही है कि यथावत् वस्तुका खरूप समझ नहीं सकते है और इसीलिये वे विद्वान् होकर भी यथार्थ विद्वान् नहीं है । मिथ्यादर्शन कर्म उसको कहते है जिसका उदय होनेपर जीव दुराग्रह न छोड़सकै तथा सञ्चा वस्तुस्वरूप INन समझ सकै। आगममें भी यही कहा है कि "सत् असत्का विवेक न होनेसे, संसारके कारणरूप कर्मोका बंध जैसाका तैसा विद्यमान रहनेसे तथा सच्चे ज्ञानफलका अभाव रहनेसे मिथ्यादृष्टी जीव सब अज्ञानी ही है"। N अत एव तत्परिगृहीतं द्वादशाङ्गमपि मिथ्याश्रुतमामनन्ति; तेषामुपपत्तिनिरपेक्षं यदृच्छया वस्तुतत्त्वोपलम्भ संरम्भात् । सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतं तु मिथ्याश्रुतमपि सम्यक्श्रुततया परिणमते । सम्यग्दृशां सर्वविदुपदेशानुसारिप्रवृत्तितया मिथ्याश्रुतोक्तस्याप्यर्थस्य यथावस्थितविधिनिषेधविषयतयोन्नयनात् । तथा हि । किल वेदे “अजैर्यष्टव्यम्" इत्यादिवाक्येषु मिथ्यादृशोऽजशब्दं पशुवाचकतया व्याचक्षते । सम्यग्दृशस्तु जन्माऽप्रायोग्यं त्रिवार्षिक यवव्रीह्यादि पञ्चवार्षिकं तिलमसूरादि सप्तवार्षिकं कङ्गुसर्षपादि धान्यपर्यायतया पर्यवसाययन्ति । अत एव च भगवता श्रीवर्द्धमानस्वामिना, विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति, न प्रेत्यसंज्ञास्तीत्यादिऋचः श्रीमदिन्द्रभूत्यादीनां द्रव्यगणधरदेवानां जीवादिनिषेधकतया प्रतिभासमाना अपि तद्व्यवस्थापकतया || व्याख्याताः। इसीलिये यदि उनने द्वादशांगोंको भी पढा हो परंतु तो भी उनके ज्ञानको आचार्योने मिथ्याश्रुत ही माना है। क्योंकि, वे युक्ति तथा नयकी अपेक्षा छोड़कर इच्छानुकूल वस्तुखरूपकी प्राप्तिका प्रयत्न करते है । जिनको सम्यग्दर्शन प्राप्त हो चुका है उनका मिथ्या व श्रुतज्ञान भी सच्चा श्रुतज्ञान होजाता है। क्योंकिः सम्यग्दृष्टी अपनी प्रवृत्ति सर्वज्ञ कथित मार्गके अनुसार ही रखते है इसलिये || मिथ्या शास्त्रोंके कहे हुए वचनोंको भी जैसा कुछ विधिनिषेधरूप सर्वज्ञदेवका उपदेश है उसके अनुसार ही घटालेते हैं। जैसे वेदमें
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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