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________________ सादादम. मलार्थ-विस्तारकी विवक्षा न की जाय तो वस्तु पर्यायरहित है तथा विस्तारसे कहनेपर वस्तु द्रव्यखरूपसे रहित है; अर्थात्- राजै.शा. + सब पर्याय ही पर्याय है। इस प्रकार द्रव्यपर्यायोंकी भिन्न भिन्न अपेक्षासे जिन भेदोंका वर्णन कियागया है तथा जिनका विचार बड़े बड़े उत्कृष्ट विद्वान् ही करसकते है ऐसे सप्तभेदोंका खरूप, हे भगवन् ! आपने ही दिखाया। व्याख्या-समस्यमानं संक्षेपेणोच्यमानं वस्त्वपर्ययमविवक्षितपर्यायम् । वसन्ति गुणाः पर्याया अस्मिन्निति वस्तु धर्माधर्माकाशपुद्गलकालजीवलक्षणं द्रव्यषट्कम् । अयमभिप्रायः। यदैकमेव वस्तु आत्मघटादिकं चेतनाऽचेतनं सतामपि पोयाणामविवक्षया द्रव्यरूपमेव वस्तु वक्तुमिष्यते तदा संक्षेपेणाभ्यन्तरीकृतसकलपर्यायनिकायत्वल y क्षणेनाभिधीयमानत्वादपर्ययमित्युपदिश्यते । केवलद्रव्यरूपमित्यर्थः । यथात्माऽयं घटोऽयमित्यादिः पर्यायाणां । द्रव्याऽनतिरेकात् । अत एव द्रव्यास्तिकनयाः शुद्धसंग्रहादयो द्रव्यमात्रमेवेच्छन्ति पर्यायाणां तदविष्वग्भूतत्वात्। पर्ययः पर्यवः पर्याय इत्यनान्तरम् । अद्रव्यमित्यादि(दौ) चः पुनरर्थे । स च पूर्वमाद्विशेषद्योतने भिन्नक्रमश्च। विविच्यमानं चेति । विवेकेन पृथग्रूपतयोच्यमानं पुनरेतद्वस्तु अद्रव्यमेव । अविवक्षितान्वयिद्रव्यं केवलपयोय रूपमित्यर्थः। M समस्यमान वस्तु पर्यायरहित है । अर्थात् जब वस्तुका सामान्य विवक्षासे विचार करते है तब वस्तुमें पर्यायोंकी अपेक्षा छोड़कर शुद्ध द्रव्यका ही आश्रय लिया जाता है। जैसे वस्तु सदा शुद्ध निर्विकार तथा अनाद्यनंत है । ऐसा विचार तभी होता है जब द्रव्यार्थिक नयकी मुख्यता की जाती है। क्योंकि; द्रव्यशब्दका अर्थ उत्पत्ति विनाशको छोड़कर शुद्ध अनुत्पन्न तथा अविनाशीपनेसे रहना है। जिसमें गुण और पर्याय वास करते हों वह वस्तु है । धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, काल तथा / y जीव इन छह द्रव्योंको ही वस्तु कहते हैं। सारांश यह है कि चेतनरूप आत्मद्रव्यमे किवा जड़रूप घटादिक वस्तुमधु अनंतो पर्याय होनेपर भी उनकी अपेक्षा नहीं करके जब एक अखंड द्रव्यरूप ही कहनेकी इच्छा होती है तब जिसमें संपूर्ण पयोयोंका समुदाय अपेक्षित न किया गया हो ऐसे संक्षेपद्वारा कहनेके कारण पर्यायरहित केवल अखंड द्रव्यरूप ही वस्तु कहा ॥१७३॥ जाता है। क्योंकि यह आत्मा है यह घड़ा है इत्यादिरूप जो पर्याय है वे सव द्रव्यखरूप ही हैं; द्रव्यसे भिन्न नहीं है। इसीलिये । शुद्ध संग्रह आदिक द्रव्यार्थिक नय सदा द्रव्यमात्रकी अपेक्षा रखते हैं। क्योंकि; द्रव्योमें ही पर्यायोंका अंतर्भाव होजाता है। पथव,
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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