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________________ स्थाद्वादम __॥४८॥ नारा .जै.शा. हो जाओ अर्थात् जैसे तुम सामान्य आदिमें सत्ताका आरोप करके अनुगतप्रत्यय सिद्ध करते हो; उसीप्रकार द्रव्य आदिमें भी सत्ताके का आरोपसे ही अनुगतप्रत्ययको खीकार करो । यदि कहो कि, मुख्य अर्थके विद्यमान न होनेपर अध्यारोप नहीं हो सकता है अर्थात् जब एक स्थानमें मुख्य अर्थ विद्यमान रहता है; तभी दूसरे स्थानमें उसका आरोप होता है, इस कारण द्रव्य आदिमें । तो यह अनुगतप्रत्यय मुख्य है और सामान्य आदिमें गौण है । सो भी नहीं। क्योंकि विपर्ययकी भी कल्पना हो सकती है. अर्थात् द्रव्यादिमें अनुगतप्रत्ययको मुख्य और सामान्य आदिमें अनुगत प्रत्ययको गौण माननेमें कोई नियामक नहीं है, अतः । द्रव्य आदिमें अनुगतप्रत्ययको गौण तथा सामान्य आदिमें अनुगतप्रत्ययको मुख्य भी मान सकते है। धू सामान्यादिषु बाधकसम्भवान्न मुख्योऽनुगतः प्रत्ययो द्रव्यादिषु तु तदभावान्मुख्यः इतिचेन्ननु किमिदं वाधलाकम् । अथ सामान्येऽपि सत्ताभ्युपगमेऽनवस्था। विशेषेषु पुनःसामान्यसद्भावे स्वरूपहानिः। समवायेऽपि सत्ता-. कल्पने तवृत्त्यर्थं सम्वन्धान्तराऽभाव इति वाधकानीतिचेत । न । सामान्येऽपि सत्ताकल्पने यद्यनवस्था तहि कथं न सा द्रव्यादिषु । तेषामपि स्वरूपसत्तायाः प्रागेव विद्यमानत्वात् । विशेषेषु पुनः सत्ताभ्युपगमेऽपि न स्वकारूपहानिः । स्वरूपस्य प्रत्युतोत्तेजनात् । निःसामान्यस्य विशेषस्य क्वचिदप्यनुपलम्भात् । समवायेऽपि समवायत्व लक्षणायाः स्वरूपसत्तायाः स्वीकारे उपपद्यत एवाविष्वम्भावात्मकः सम्बन्धोऽन्यथा तस्य स्वरूपाऽभावप्रसङ्गः। इति वाधकाऽभावात्तेष्वपि द्रव्यादिवन्मुख्य एव सत्तासम्बन्धः। इति व्यर्थ द्रव्यगुणकमेवेव सत्ताकल्पनम् । | यदि कहो कि,-सामान्य आदिकमें बाधकका सद्भाव है, अत. सामान्य आदिमें अनुगतप्रत्यय मुख्य नहीं है और द्रव्यादिौ । कोई बाधक नहीं है, अतः द्रव्यादिमें अनुगतप्रत्यय मुख्य है, तो हम प्रश्न करते है कि, वह बाधक क्या है ? । यदि उत्तरमा कहो कि, सामान्यमें सत्ता (सामान्यत्व ) का स्वीकार करनेमें अनवस्थादोष होता है, विशेषोंमें विशेषत्वरूप सत्ताके माननेपर ५ विशेषोंका खत: व्यावृत्तत्वरूप खरूप नष्ट होता है, तथा समवायमें समवायत्वरूप सत्ताका अंगीकार करनेपर समवायमें सत्ताके Mali रहनेके अर्थ कोई दूसरा संबंध नहीं है। इस प्रकार ये बाधक विद्यमान है। सो ठीक नहीं है । क्योंकि, यदि सामान्यमें भी ॥४८॥ सत्ताको माननेसे अनवस्था होती है, तो वह अनवस्था द्रव्य आदिमें भी क्यों नहीं होती है । कारण कि, उन द्रव्यादिकर्म भी निर्विशेष हि सामान्य भवेत्खरविपाणवत् । सामान्यरहितत्वे तु विशेपास्तहदेव हि।।। इति नियमात् ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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