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________________ TAS खरूपसत्ता पहले ही विद्यमान है । भावार्थ-जब सत्तामें सत्ताके रहनेसे अनवस्था होती है, तब द्रव्यादिकमें वरूपसत्ता रहती| है । और वहां पर ही तुम अनुवृत्तिप्रत्ययकी कारणभूत दूसरी सत्ता मानते हो; अतः द्रव्यादिकमें भी सत्ताका योग माननेसे अनवस्था क्यों नहीं होती है और विशेषोंमें सत्ताका खीकार करनेपर भी विशेषोंके स्वरूपकी हानि नही होती है। क्योंकि. सामान्यरहित विशेष कही भी प्राप्त नहीं होता है, इसकारण विशेषमें विशेषत्वरूप सत्ताको स्वीकृत करनेपर 'उलटा विशेषोंके स्वरूपको उत्तेजन मिलता है । और समवायमें भी समवायत्वरूप स्वरूपसत्ताका अङ्गीकार करनेपर अविप्वम्भावरूप सबंध (तादात्म्य सबध ) सिद्ध होता ही है। क्योंकि यदि समवायमें अविष्वम्भावरूप संबंध न मानो तो उस समवायके स्वरूपका अभावरूप प्रसंग न होगा । अर्थात् समवाय स्वरूपरहित हो जावेगा; और वह तुमको इष्ट नहीं है। ऐसे पूर्वोक्तप्रकारसे सामान्य आदिमें बाधकका आदिमें सत्ताका सबंध मुख्य है, उसी प्रकार, उन सामान्य आदिमें भी सत्ताका सबंध मुख्य ही है, यह सिद्ध हो चुका । इसकारण द्रव्य-गुण-तथा कर्ममें ही जो तुम सत्ताकी कल्पना करते हो, वह व्यर्थ ( निष्प्रयोजन ) है। किञ्च तैर्वादिभिर्यो द्रव्यादित्रये मुख्यः सत्तासम्बन्धः कक्षीकृतः । सोऽपि विचार्यमाणो विशीर्यते । तथा हिIN यदि द्रव्यादिभ्योऽत्यन्तविलक्षणा सत्ता तदा द्रव्यादीन्यसद्रूपाण्येव स्युः। सत्तायोगात्सत्त्वमस्त्येवेतिचेत्-असतांना सत्तायोगेऽपि कुतः सत्त्वं, सतां तु निष्फलः सत्तायोगः । स्वरूपसत्त्वं भावानामस्त्येवेतिचेत्तर्हि किं शिखण्डिना सत्तायोगेन । सत्तायोगात्प्राग्भावो न सन् , नाप्यसन् , सत्तायोगात्तु सन्नितिचेदाङ्मात्रमेतत् । सदसद्विलक्षणस्य । प्रकारान्तरस्यासम्भवात् । तस्मात्सतामपि स्यात्वचिदेव सत्तेति तेषां वचनं विदुषां परिपदि कथमिव नोपहा साय जायते। KM और भी विशेष यह है कि, उन वैशेषिकोंने जो द्रव्य-गुण तथा कर्म इन तीनमें सत्ताके संबंधको मुख्यरूपसे स्वीकृत किया । है, वह मुख्य सत्ताका संबंध भी जब हम उसका विचार करते है तो जर्जरा हो जाता है । सो ही दिखलाते है । यदि तुम सत्ताको IN द्रव्य आदिसे अत्यन्त विलक्षण ( भिन्न स्वरूपवाली ) मानते हो, तो द्रव्य आदिक असद्प के धारक हो जावेंगे। यदि कहो कि, सत्ताके योगसे उन द्रव्य आदिमें सत्त्व ( सत्रूप पना ) है ही तो जो असत्रूप द्रव्य आदि है; उनमें सत्ताका योग करने पर भी सत्त्व कैसे होगा अर्थात् असत्रूप द्रव्य आदिकमें सत्ताका योग होने पर भी द्रव्य आदि सत्रूप नहीं हो सकते है । -
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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