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________________ ८० पुरातन-जैनवाक्य-सूची सकित्तिणाम चेदि । *. 'गोदकम्मं दुविहं उच्च-णीचगोदं चेइ । अंतरायं पंचविहं दाण-लाभभोगोपभोग-वीरिय-अंतरायं चई।" मूडबिद्रीकी उक्त प्रतिमे पाये जाने वाले ये सब सूत्र पट्खण्डागमके सूत्रोंपरसे थोड़ा बहुत संक्षेप करके बनाये गये मालूम होते है, अन्यत्र कहीं देखनेमे नहीं आते और अन्थके पूर्वाऽपर सम्बन्धको दृष्टिमें रखते हुए उसके आवश्यक अंग जान पड़ते हैं, इसलिये इन्हें प्रस्तुत ग्रन्थके कता आचार्य नेमिचन्द्रकी ही कृति अथवा योजना समझना चाहिये। पद्य-प्रधान ग्रन्थोमे गद्यसूत्रो अथवा कुछ गद्य भागका होना कोई अस्वाभाविक अथवा दोषकी बात भी नही है , दूसरे अनेक पद्य-प्रधान ग्रन्थोंमे भी पद्योंके साथ कहीं-कहीं कुछ गद्यभाग उपलब्ध होता है जैसे कि तिलोयपण्णत्ती और प्राकृतपञ्चसंग्रहमें । ऐसा मालूम होता है कि ये गद्यसूत्र टीका-टिप्पणका अंश समझे जाकर लेखकोंकी कृपासे प्रतियोंमे छूट गये हैं और इसलिये इनका प्रचार नहीं हो पाया । परन्तु टीकाकारोकी ऑखोंसे ये सर्वथा ओमल नहीं रहे है-उन्होंने अपनी टीकाओमे इन्हे ज्यो-के-त्यों न रखकर अनुवादितरूपमे रक्खा है, और यही उनकी सबसे बड़ी भूल हुई है, जिससे मूलसूत्रोंका प्रचार रुक गया और उनके अभावमे ग्रंथका यह अधिकार टिपूर्ण जंचने लगा। चुनॉचे कलकत्तासे जनसिद्धान्त-प्रकाशिनी संस्था-द्वारा दो टीकाओंके साथ प्रकाशित इस ग्रंथकी संस्कृत टीकामें (और तदनुसार भाषा टीकामे भी) ये सब सूत्र प्राय 3 ज्यो-के-त्यों अनुवादके रूप में पाये जाते हैं, जिसका एक नमूना २५वीं गाथाके साथ पाये जाने वाले सूत्रोंका इस प्रकार है - ' इस* चिन्हसे पूर्ववर्ती सूत्रोंको गाथा नं० ३२ के बाद के और उत्तरवर्ती सूत्रोको गाया नं० ३३ के बाद के समझना चाहिये। २ तुलनाके लिये दोनोंके कुछ सूत्र उदाहरण के तौरपर नीचे दिये जाते हैं:(क) "वेदणीयस्स कम्मस्स दुवे पयडीयो।” “सादावेदणीयं चेव असादावेदणीय चेव ।" –पटख० १, ६ चू०८ "वेदणीयं दुविहं सादावेदणीयमसादावेदीयं चेह" -गो० क० मूडबिद्री-प्रति (ख) जं त सरीरबंधणणामकम्म तं पंचविहं अोरालिय-सरीरबंधणणामं, वेउन्विय-सरीरबंधणणाम श्राहार-सरीरवधणणाम तेजासरीरबधणणामं कम्मइयसरीरबंधणणामं चेदि । -षट् स्व० १.६ चू०८ "सरीरवंधणणामं पंचविहं पोरालिय-वेगुम्विय-श्राहार-तेज-कम्मइय-सरीरवधणणाम चेह।" -गो०, क० मूडबिद्री-प्रति ३ 'प्राय:' शब्द के प्रयोगका यहाँ श्राशय इतना ही है कि दों एक जगह थोडासा भेद भी पाया जाता है, वह या तो अनुवादादिकी गलती अथवा अनुवाद-पद्धतिसे सम्बन्ध रखता है और या उसे सम्पादनको गलती समझना चाहिये । सम्पादनकी गलतीका एक स्पष्ट उदाहरण २२वीं गाथा-टीकाके साथ पाय जानेवाले निम्न सूत्रमें उपलब्ध होता है"दर्शनावरणीयं नवविध स्त्यानगद्वि-निद्रा निद्रानिद्रा-प्रचला-प्रचलाप्रचला-चक्षुरचक्षरवधिदर्शनावरणाय केवनदर्शनावरणीय चेति ।" इसमें स्त्यानगृद्धि के बाद दो हाईफनों (.) के मध्य में जो 'निद्रा' को रक्खा है उसे उस प्रकार वहाँ न रखकर 'प्रचलाप्रचला' के मध्यमें रखना चाहिये था और इस "प्रचलाप्रचला" के पूर्वमें जो हाई फन है उसे निकाल देना चाहिये था, तभी मूलसूत्रके साथ और ग्रन्थकी अगलो तीन गाथाश्रकि साथ इसकी सगति ठीक बैठ सकती थी। पं० टोडरमल्लनीकी भाषा टीकामें मूलसूत्रके अनुरूप ही अनुवाद किया गया है। अनुवाद-पद्धतिका एक नमूना ऊपर उदधृत मोहनीय-कर्म-विषयक सूत्रमें पाया जाता है, जिसमें 'एकविध' और 'विविध' पदोंको थोड़ा-सा स्थानान्तरित करके रखा गया है । और दूसरा TTT
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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