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________________ प्रस्तावना "वेदनीयं द्विविधं सातावेदनीयमसातावेदनीचं चेति । मोहनीयं द्विविधं दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं चेति । तत्र दर्शनमोहनीयं बंध-विवक्षया मिथ्यात्वमेकविधं उदयं सत्वं प्रतीत्य मिथ्यात्वं सम्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्वप्रकृतिश्चेति त्रिविधं ।" और इससे इन सूत्रों के मूलग्रंथका अंग होनेकी बात और भी सुदृढ हो जाती है। वस्तुत इन सूत्रोंकी मौजूदगीमे ही अगली गाथाओं के भी कितने ही शब्दों, पद-वाक्यों अथवा सांकेतिक प्रयोगोंका अर्थ ठीक घटित किया जा सकता है-इनके अथवा इन जैसे दूसरे पद-वाक्योंके अभावमे नहीं । इस विपयके विशेष प्रदर्शन एवं स्पष्टीकरणको मैं लेखके बढ़ जानेके भयसे ही नहीं, किन्तु वर्तमानमे अनावश्यक समझकर भी, यहाँ छोडे देता हूँ-विज्ञ पाठक उसका अनुभव स्वतः कर सकते है; क्योंकि मैं समझता हूँ इस विपयमे ऊपर जो कुछ लिखा गया और विवेचन किया गया है वह सब इस वातके लिये पर्याप्त है कि ये सब सूत्र मूलपथके अंगभूत हैं और इसलिये इन्हें प्रथमे यथास्थान गाथाओवाले टाइपमे ही पुनः स्थापित करके अथके प्रकृत अधिकारकी त्रुटिको दूर करना चाहिये। अब रही उन ७५ गाथाओकी बात, जो 'कर्मप्रकृति' प्रकरणमे तो पाई जाती हैं किन्तु गोम्मटसारके इस 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकारमे नहीं पाई जाती, और जिनके विपयमे पं० परमानन्दजी शास्त्रीका यह कहना है कि वे सब कर्मकाण्डकी अंगभूत आवश्यक और संगत गाथाएँ हैं, जो किसी समय लेखकोंकी कृपासे कर्मकाण्डसे छूट गई अथवा उससे जुदी पड़ गई हैं, 'कर्मप्रकृति' जैसे प्रथ-नामोंके साथ प्रचारको प्राप्त हुई हैं, और इस लिये उन्हें फिरसे कर्मकाण्डमे यथास्थान शामिल करके उसकी उस ऋटिको पूरा करना चाहिये जिसके कारण वह अधूरा और लॅडूरा जान पडता है। जहाँ तक मैंने उन विवादस्थ गाथाओंपर, उनके कर्मकाण्डका आवश्यक तथा सगत अंग होने, कमकाण्डसे किसी समय छूटकर कर्म-प्रकृतिके रूपमे अलग पड़ जाने और कर्मकाण्डमे उनके पुनः प्रवेश कराने आदिके प्रश्नोंको लेकर, विचार किया है मुझे प्रथम तो यह मालूम नहीं हो सका कि 'कर्मप्रकृति' प्रकरण और 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकार दोनोको एक कैसे समझ लिया गया है, जिसके आधारपर एकमे जो गाथाएं अधिक हैं उन्हें दूसरेमे भी शामिल करानेका प्रस्ताव रखा गया है, जब कि कर्मप्रकृतिमे प्रकृतिसमुत्कीर्तन अधिकारसे ७५ गाथाएं अधिक ही नहीं बल्कि उसकी ३५ गाथाएं (न० ५२ से ८६ तक) कम भी हैं, जिन्हें कर्मप्रकृतिमे शामिल करनेके लिये नहीं कहा गया, और इसी तरह २३ गाथाएं नमूना २२वीं गाथाकी टीकामें उपलब्ध होता है, जिसका प्रारम्भ 'ज्ञानावरणादीना यथासंख्यमुत्तरभेदाः पन नव' इत्यादि रूपसे किया गया है, और इसलिये मूलक के नाम-विषयक प्रथम सूत्रके ('तत्य' शब्द सहित) अनुवादको छोड दिया है; जब कि प० टोडरगल्लजीकी टीकामें उसका अनुवाद किया गया है और उसमें ज्ञानावरणीय श्रादि कर्मोके नाम देकर उन्हें "श्राठ मूलप्रकृति" प्रकट किया है, जो कि सगत है और इस बातको सूचित करता है कि उक्त प्रथम सूत्रमें या तो उक्त श्राशयका कोई पद त्रुटित है अथवा 'मोहणीय' पदकी तरह उद्धृत होनेसे रह गया है । इसके सिवाय, 'शरीरबन्धन' नामकर्मके पाच भेदोंका जो सूत्र २७वीं गाथाके पूर्व पाया जाता है उसे टीकामें २७वीं गाथाके अनन्तर पाये जाने वाले सूत्रोंमें प्रथम रक्खा है और इससे 'शरीग्बन्धन' नामकर्मके जो १५ मेद होते थे वे 'शरीर' नामकर्मके १५ भेद हो जाते हैं, जो कि एक सैद्धान्तिक गलती है और टीकाकारद्वारा उक्त सूत्रको नियत स्थानपर न रखनेके कारण २७ वी गाथाके अर्थ में घटित हुई है, क्योंकि पटखण्डागममें भी 'पोरालिय-श्रोगलिय-सरीरबधो' इत्यादि रूपसे १५ भेद शरीरबन्धके ही दिये हैं और उन्हें देकर श्रीवीरसेनस्वामीने धवला-टीकामें साफ लिखा है"एसो परणासविहो बधो सो सरीरबधो त्ति घेत्तवो।"
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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