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________________ प्रस्तावना ७६ कुज्ज-बामण-हुड-सरीसंठाणणामं चेदि । सरीर अंगोवंगणाम तिविहंओरालिय-वेगुचिय. आहारसरीर-अगोवंगणामं चेदि ।" ____यहाँ पर इतना और जान लेना चाहिये कि २७वीं गाथाके पूर्ववती गद्यसूत्रोंमें नामकर्मकी प्रकृतियोंका जो क्रम स्थापित किया गया है उसकी दृष्टिसे ही शरीरबन्धनादिके बाद २८वीं गाथामे अंगोपालका कथन किया गया है, अन्यथा तत्त्वार्थसूत्रकी दृष्टिसे वह कथन शरीरबन्धनादिकी प्रकृतियोके पूर्वमे ही होना चाहिये था; क्योंकि तत्त्वार्थसूत्रमें "शरीराङ्गोपांगनिर्माण-बन्धन-संघात संस्थान-संहनन" इस क्रमसे कथन है। और इससे नामकर्म-विषयक उक्त सूत्रोंकी स्थिति और भी सुदृढ होती है। (२८वीं गाथाके अनन्तर चार गाथाओं ( नं० २९, ३०, ३१, ३२ ) में संहननोंका, जिनकी संख्या छह सूचित की है , वर्णन है अर्थात् प्रथम तीन गाथाओंमे यह बतलाया है कि किस किस संहननवाला जीव स्वर्गादि तथा नरकोमे कहाँ तक जाता अथवा मरकर उत्पन्न होता है और चौथी (नं० ३२) मे यह प्रतिपादन किया है कि 'कर्मभूमिकी स्त्रियों के अन्तके तीन संहननोका ही उदय रहता है, आदिके तीन संहनन तो उनके होते ही नहीं, ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है। परन्तु ठीक क्रम-आदिको लिये हुए छहों संहननोंके नामोंका उल्लेख नहीं किया-मात्र चार संहननोंके नाम ही इन गाथा ऑपरसे उपलब्ध होते हैं, जिससे 'आदिमतिगसंहडणं', 'अतिमतियसहडणस्स', 'तिदुगेगे सहडणे,' और 'पणचदुरेगसंहडणो' जैसे पदोका ठीक अर्थ घटित हो सकता। और न यही बतलाया है कि ये छहों संहनन कौनसे कर्मकी प्रकृतियाँ हैं-पूर्वकी किसी गाथापरसे भी छहोके नाम नामकर्म के नामसहित उपलब्ध नहीं होते । और इसलिये इन चारों गाथाओंका कथन अपने पूर्वमे ऐसे कथनकी माँग करता है जो ठीक क्रमादिके साथ छह संहननोके नामोल्लेखको लिये हुए हो । ऐसा कथन मूडबिद्रीकी उक्त प्रतिमे २८वीं गाथाके अनन्तर दिये हुए निम्न सूत्रपरसे उपलब्ध होता है: "सहरण णमं छबिह वज्जरिसहणारायसहडणणामं वज्जणाराय-णाराय-श्रद्धणाराय-खीलिय-असपत्त-सेवट्टि सरीरसहडणणामं चेड ।" यहाँ संहननोंके प्रथम भेदको अलग विभक्तिसे रखना अपनी खास विशेषता रखता है और वह ३०वीं गाथामे प्रयुक्त हुए 'इग' 'एग' शब्दों के अर्थको ठीक व्यवस्थित करनेमे समर्थ है। इसी तरह, मृडबिद्रीकी उक्त प्रतिमें, नामकर्मकी अन्य प्रकृतियोके भेदाऽभेदको लिये हुए तथा गोत्रकर्म और अन्तरायकर्मकी प्रकृतियोंको प्रदर्शित करनेवाले और भी गद्यसूत्र यथास्थान पाये जाते है, जिन्हें स्थल-विशेषकी सूचनादिके विना ही मैं यहाँ, पाठकोंकी जानकारीके लिये उद्धृत कर देना चाहता हूँ ___ "वएणणाम प वह किएण-णील-रुहिर-पीद-सुविकल-वएणणाम चेदि । गंधणाम दुविह सुगध-दुगघ-णामं चेदि । रसणाम पंचविहं तिह-कह-कसायंबिल-महुर-रसणाम चेइ। , फासणाम अट्टविह कक्कड-मउगगुरुल हुग-रुक्ख-सणिद्ध-सीदुसुण-फासणाम चेदि । आणुपुवीणामं चविहं णिरय-तिरक्खगाय-पाओग्गाणुपुवीणाम मणुस-देवगाय-पाओग्गाणुपुवीणाम चेइ । अगुरुलघुग-उवघाद-परघाद-उस्सास-आदव-उज्जोद-णाम चेदि । विहायगदिणामकम्म दुविह पसत्थविहायगदिणाम अप्पसत्थविहायगदिणाम चेदि । तस-बादरपज्जत्त-पत्तेय-सरीर-सुभ-सुभग - सुस्सर-आदेज-जसकित्ति-णिमिण - तित्थयरणाम चेदि । थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारण-सरीर • अथिर - असुह-दुभग • दुस्सर - अणादेज - अज
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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