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________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची प्रकृतियोंका उल्लेख करते हुए शरीर-बन्धन नामकर्मकी पॉच प्रकृतियों तक ही कथन किया गया है :___ "चारित्तमोहणीयं दुविहं कसाययेदणीयं णोकसाययेदणीयं चेइ । कसायवेदणीयं सोल सविहं खवणं पडुच्च अणंताणुबांधि-कोह-माण-माया-लोह अपञ्चक्खाणपञ्चक्खाणावरण-कोह-माण-माया-लोहं कोह-सांजलणं माण-संजलणं माया-जिल लोह-सांजलणं चेइ । पक्कमदळां पडुच्च अणंताणुवांधि-लोह-कोह-माया-माणं संजलणलोह-माया-कोह-माणं पच्चक्खाण-लोह-कोह-माया-मारणं अपच्चक्वाण-लोह-कोहमाया-माण चेइ । णोकसायवेदीयं णवविहं पुििसत्थिणउसययेद रदि-अरदि-हस्ससोग-भय-दुगुछा चेदि । आउगं चउविहं णिरयायुगं तिरिवख-माणुस्स-देवाउगं चेदि । णामं बादालीसं पिडापिडपयडिभेयेण गयि-जयि-सरीर-बधण-सघाद-संठाण-अंगोवगसंघडण-वरण-गंध- रस-फास-आणुपुच्ची-अगुरुगलहुगुवघाद-परघाद-उस्सास - आदावउज्जोद-विहायगाय-तस-थावर-बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेय-साहारण सरीर-थिथिरसुभासुभ-सुभग - दुब्भग-सुस्सर-दुस्सर-श्रादेज्जाणादेज्ज-जसाजसकित्तिणिमिण-तित्थयरणामं चेदि । तत्थ गयिणाम चउविहं णिरयतिरिक्खगयिणाम मणुस-देवर्गायणाम चेदि । जायिणाम पचविह एडादय-बीइदिय तीइदिय चउइदिय-जायिणाम पचिदियजायिणामं चेदि । सरीरणाम पचविह ओलिय वेगुम्विय आहार तेज.कम्मइयसरीरणाम चेइ । सरीरवधणणाम पंचविहं ओलिय वेगुध्विय.अाहार-तेज.कम्मइय.सरीरवधणणामं चेइ ।" २७वीं गाथाके बाद जो २८वीं गाथा है उसमे शरीरमे होने वाले आठ अङ्गों के नाम देकर शेषको उपाङ्ग बतलाया है, परन्तु उस परसे यह मालूम नहीं होता कि ये अंग कौनसे शरीर अथवा शरीरोंमे होते है। पूर्वकी गाथा नं० २७ मे शरारबन्धनसम्बन्धी १५ संयोगी भेदोकी सूचना करते हुए तैजस और कार्माण नामके शरीरोका तो स्पष्ट उल्लेख है शेष तीनका 'तिए' पदके द्वारा सकेतमात्र है, परन्तु उनका नामोल्लेख पहलेकी भी किसी गाथामे नहीं है, तब उन अंगो-उपाङ्गोको तैजस और कार्माणके अङ्ग-उपाङ्ग समझा जाय अथवा पॉचोमेसे प्रत्येक शरीरके अङ्ग-उपाङ्ग ? तैजस और कार्माण शरीरके अंगोपांग माननेपर सिद्धान्तका विरोध आता है; क्योकि सिद्धान्तमे इन दोनों शरीरों के अंगोपाग नहीं माने गये हैं और इसलिये प्रत्येक शरीरके अंगोपांग भी उन्हें नहीं कहा जा सकता है । शेष तीन शरीरोंमेसे कौनसे शरीरके अङ्गोपाङ्ग यहाँ विवक्षित हैं यह सदिग्य है । अतः गाथा नं० २८ का कथन अपने विपयमे अस्पष्ट तथा अधूरा है और उसकी स्पष्टता तथा पूर्ति के लिये अपने पूर्वमे किसी दूसरे कथनकी अपेक्षा रखता है । वह कथन मूडबिद्रीकी उक्त प्रतिमे दोनो गाथाओके मध्यमे उपलब्ध होनेवाले निम्न गद्यसूत्रोंमेसे अन्तके सूत्रम पाया जाता है, जो उक्त २५वीं गाथाके ठीक पूर्ववर्ती है और जिसमे औदारिक, वैक्रियिक, आहारक इन तीन शरीरोंकी दृष्टिसे अजोपाग नामकर्मके तीन भेद किये है, और इस तरह इन तीन शरीरोंमे ही अगोपांग होते हैं ऐसा निर्दिष्ट किया है : "सरीरसंघादणाम पचविहोरालिय वेगुब्धिय.आहार तेज-कम्मइय-सरीरसंघादणाम चेदि । सरीरसंठाणणामकम्मं छविहं समचउरसंठाणणामं णगोद-परिमंडल-पादिय
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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