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________________ प्रस्तावना ७७ प्राप्त ज्ञानावरणकी ५ प्रकृतियोंका कोई नामोल्लेख न करके और न उस विषयकी कोई सूचना करके दर्शनावरणकी प्रकृतियोंमेसे स्त्यानगृद्धि आदि पाँच प्रकृतियों के कार्यका निर्देश करना प्रारम्भ किया गया है, जो २५ वीं गाथा तक चलता रहा है । इन दोनो गाथाओंके मध्यमे निम्न गद्यसूत्र पाये जाते हैं, जिनमें ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीयकर्मो. की उत्तर प्रकृतियोंका संख्याके निर्देशसहित स्पष्ट उल्लेख है और जिनसे दोनों गाथाओंका सम्बन्ध ठीक जुड़ जाता है। इनमेंसे ! त्येक सूत्र ‘चेइ' अथवा 'चेदि पर समाप्त होता है:___ "णाणावरणीयं दंसणावरणीयं वेदणीयं [ मोहीयं ] आउगं णामं गोदं अंतरायं चेइ । तत्थ णाणावरणीयं पचविहं आभिणिवोहिय-सुद-प्रोहि-मणपजव-णाणावरणीयं केवलणाणावरणीयं चेड । दमणावरणीयं णवविहं थीणगिद्धि णिहाणिद्दा पयलापयला णिहा य पयला य चक्खु-अचक्खु-ओहिदसणावरणीयं केवलदसणावरणीयं चेइ ।" । इन सूत्रोंकी उपस्थितिमे ही अगली तीन गाथाओमे जो स्त्यानगृद्धि आदिका क्रमशः "निर्देश है वह सगत वैठता है, अन्यथा तत्त्वार्थसूत्रमे तथा षटखण्डागमकी पयडिसमुक्कित्तणचूलियामे जब उनका भिन्नक्रम पाया जाता है तब उनके इस क्रमका कोई व्यवस्थापक नहीं रहता । अतः २३, २४, २५ नम्बरकी गाथाओंके पूर्व इन सूत्रोकी स्थिति आवश्यक जान पड़ती है। २५वीं गाथामे दर्शनावरणीय कर्मकी । प्रकृतियोंमे 'प्रचला' प्रकृतिके उदयजन्य कार्यका निर्देश है। इसके बाद क्रमप्राप्त वेदनीय तथा मोहनीयको उत्तर-प्रकृतियोंका कोई नामोल्लेख तक न करके एकदम २६ वीं गाथामे यह प्रतिपादन किया गया है कि मिथ्यात्वद्रव्य (जो कि मोहनीय कर्मका दर्शनमोहरूप एक प्रधान भेद है ) तीन भेदोंमे कैसे वॅटकर तीन प्रकृतिरूप हो जाता है। परन्तु जब पहलेसे मोहनीयके दो भेदो और दर्शनमोहनीय के तीन उपभेदोंका कोई निर्देश नहीं तव वे तीन उपभेद कैसे हो जाते हैं यह बतलाना कुछ खटकता हुआ जरूर जान पड़ता है, और इसीसे दोनों गाथाओंके मध्यमें किसी अंश के त्रुटित होनेकी कल्पना की जाती है। मूडबिद्रीकी उक्त प्राचीन प्रतिमे, दोनों के मध्यमे निम्न गद्य-सूत्र उपलब्ध होते हैं, जिनसे उक्त त्रुटित अशकी पूर्ति हो जाती है: "वेदनीयं दुविहं सादावेदणीयमसादावेदणीयं चेइ । मोहणीय दुविहं दंसणमोहणीयं चारित्तमोहणीयं चेइ । दसणमोहणीयं बंधादो एयविहं मिच्छत्तं, उदयं संतं पडुच्च तिविहं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं मम्मत्तं चेइ ।" । . उक्त दर्शनमोहनीयके भेदोंकी प्रतिपादक २६वीं गाथाके बाद चारित्रमोहनीयकी मूलोत्तर-प्रकृतियों, आयुकर्मकी प्रकृतियों और नामकर्मकी प्रकृतियोका कोई नाम निर्देश न करके २७वीं गाथामे एकदम किसी कर्मके १५ संयोगी भेदोंको गिनाया गया है, जो नामकर्मकी शरीर-बन्धनप्रकृतियोसे सम्बन्ध रखते हैं, परन्तु वह कर्म कौनसा है और उसकी किन किन प्रकृतियोके ये सयोगी भेद होते हैं, यह सब उसपरसे ठीक तौर पर जाना नहीं जाता। और इसलिये वह अपने कथनकी सङ्गति के लिये पूर्व में किसी ऐसे कथनके अस्तित्वकी कल्पनाको जन्म देती है जो किसी तरह छुट गया अथवा त्रुटित हो गया है । वह कथन मूडबिद्रीकी उक्त प्रतिमे निम्न गद्यसूत्रों में पाया जाता है, जिससे उत्तर-कथनकी संगति ठीक बैठ जाती है, क्योंकि इनमे चारित्र-मोहनीयकी २८, आयुकी ४ और नामकर्मकी मूल ४२ प्रकृतियोका नामोल्लेख करनेके अनन्तर नामकर्मके जाति आदि भेदोंकी उत्तर
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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