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________________ पुरान-जैनवाक्य-सूची ही नहीं, किन्तु 'नेमिचन्द्र-सिद्धान्तचक्रवर्ती' भी लिखा है और ग्रन्थको टीकामे 'कर्मकाण्ड' तथा टिप्पणमे 'कर्मकाण्डका प्रथम अंश' सूचित किया है। साथही, शाहगढ़ जि. सागरके सिंघईजीके मन्दिरकी एक ऐसी जीर्ण-शीर्ण प्रतिका भी उल्लेख किया है जिसमें कर्मकाण्डके शुरूके दो अधिकार तो पूरे हैं और तीसरे अधिकारकी ४० मेसे २५ गाथाएं हैं, शेष ग्रन्थ संभवतः अपनी अतिजीणेताके कारण टूट-टाट कर नष्ट हुआ जान पड़ता है । इसके प्रथम अधिकारमे वे ही १६० गाथाएं पाई जाती हैं जो कर्मप्रकृतिमे उपलब्ध हैं और इस परसे यह घोषित किया गया कि कर्मप्रकृतिको जिन गाथाओंको कर्मकाण्डमे शामिल करनेका प्रस्ताव रखा गया है वे पहलेसे कमकाण्डकी कुछ प्रतियोंमे शामिल हैं अथवा शामिल करली गई । इस लेखके प्रत्युत्तरमे प्रो० हीरालालजीन एक दूसरा लेख और लिखा, जो 'गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी त्रुटिपूति-सम्बन्धी प्रकाशपर पुनः विचार' नामसे जेनसन्देश भाग ४ के अङ्क ३२ आदिमे प्रकाशित हुआ है और जिसमे अपनी उन्हीं बातोंको पुष्ट करने का यत्न किया गया है और गोम्मटसार तथा कर्मप्रकृतिके एककर्तृत्वपर अपना सन्देह कायम रक्खा गया है; परन्तु कल्पना अथवा संभावनाके सिवाय सन्देहका कोई खास कारण व्यक्त नहीं किया गया। टिपूर्ति-सम्बन्धी यह चर्चा जब चल रही थी तब उससे प्रभावित होकर पूर लोकनाथजी शास्त्रीने मूडबिद्रीके सिद्धान्त-मन्दिरके शास्त्र-भण्डार में, जहां धवलादिक सिद्धान्तग्रंथोंकी मूलप्रतियाँ मौजूद हैं, गोम्मटसारकी खोज की थी और उस खोज के नतीजेसे मुझे ३० दिसम्बर सन १९५० को सूचित करनेकी कृपा की थी, जिसके लिये मैं उनका बहुत आभारी हूँ। उनकी उस सूचनापरसे मालूम होता है कि उक्त शास्त्रभंडारमें गोम्मटसारके जीवकाण्ड और कर्मकाण्डकी मूलप्रति त्रिलोकसार और लघिसार-क्षपणासार सहित ताडपत्रोपर मौजूद है । पत्र-सख्या जीवकाण्डकी ३८, कर्मकाण्डकी ५३, त्रिलोकसार की ५१ और लब्धिसार-क्षपणासारकी ४१ है । ये सब ग्रंथ पूर्ण हैं और इनकी पद्य-सख्या क्रमशः ७३०, ८७२, १०१८, ८२० है ताडपत्रोंकी लम्बाई दो फुट दो इञ्च और चौडाई दो इन्च है। लिपि 'प्राचीन कन्नड' है, और उसके विषयमे शास्त्रीजीने लिखा था "ये चारों ही ग्रंथोंमे लिपि बहुत सुन्दर एवं धवलादि, सिद्धान्तोंकी लिपिके समान है। अतएव बहुत प्राचीन हैं । ये भी सिद्धान्त लिपि-कालीन ही होना चाहिये। साथ ही, यह भी लिखा था कि "कर्मकाण्डमे इस समय विवादस्थ कई गाथाएं (इस प्रतिमे) सूत्र रूपमे हैं" और वे सूत्र कर्मकाण्डके 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकारकी जिसजिस गाथाके बाद मूलरूपमे पाये जाते हैं उसकी सूचना माथमे देते हुए उनकी एक नकल भी उतार कर उन्होने भेजी थी। इस सूचनादिको लेकर मैंने उस समय नटिपूर्ति-विषयक नई खोज' नामका एक लेख लिखना प्रारम्भ भी किया था परन्तु समयाभावादि कुछ कारणोके वश वह पूरा नहीं हो सका और फिर दोनो विद्वानोकी ओरसे चर्चा समाप्त होगई, इससे उसका लिखना रह ही गया । अस्तु; आज मैं उन सूत्रोमेसे आदिके पॉच स्थलोंके सूत्रोंको, स्थल-विषयक सूचनादिके साथ नमुनेके तौरपर यहॉपर दे देना चाहता हूँ, जिससे पाठकोंको उक्त अधिकारकी त्रुटिपूर्तिके विषयमे विशेष विचार करनेका अवसर मिल सके कर्मकाण्डकी २२वीं गाथामे ज्ञानावरणादि आठ मृल कर्मप्रकृतियोंकी उत्तरकमप्रकृति-संख्याका ही क्रमशः निर्देश है-उत्तरप्रकृतियों के नामादिक नहीं दिये और न आगे ही संख्यानुसार अथवा संख्याको सूचनाके साथ उनके नाम दिये हैं । २३ वी गाथामे क्रम- रायचन्द्र-जैनशास्त्रमालामे प्रकाशित जीवकाण्डमे ७३३, कर्मकाण्डमें १७२ और लब्धिसार-क्षपणासारम ६४६ गाथा सख्या पाई जाती है । मुद्रित प्रतियोंमें कौन-कौन गाथाएं बढी हुई तथा घटी हुई हैं उनका लेखा यदि उक्त शास्त्रीजी प्रकट करें तो बहुत अच्छा हो।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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