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________________ प्रस्तावना ५६ सिद्ध नहीं होता । डाक्टर ए० एन उपाध्ये एम० ए० का भी इसके विपयमे ऐसा ही मत है। अतः इसका कर्तृत्व-विपय अभी अनुसन्धानके योग्य है। ३२. दर्शनसार-अनेक मतों तथा सघोकी उत्पत्ति आदिको लिये हुए यह अपने विपयका एक ही ग्रंथ है, जो प्राचीन गाथाश्रोपरसे निवद्ध किया गया अथवा उन्हें साथमे लेकर संकलित किया गया है (गा.१,४६) और अनेक ऐतिहासिक घटनाओंकी समयसूचना आदिको साथमें लिये हुए है। इसकी गाथासंख्या ५१ है और यह धारानगरीके पार्श्वनाथ चैत्यालयमे माघसुदी दसमी विक्रम स० ६६०को बनकर समाप्त हुआ है (गा०५०)। इसमे एकान्तादि प्रधान पाँच मिथ्या मतों और द्राविड, यापनीय, काष्ठा, माथुर तथा भिल्ल सघोकी उत्पत्तिका कुछ इतिहास उनके सिद्धान्तोंके उल्लेखपूर्वक दिया है, और इसलिये इतिहासके प्रेमियो तथा ऐतिहासिक विद्वानों के लिये यह कामकी चीज है। इसके र वयिता अथवा संग्रहकर्ता देवसेन गणी हैं जिनके बनाये हुए तत्त्वसार, आराधनासार, नयचक्र और भावसंगह नामके और भी कई ग्रथ प्रसिद्घ है। भावसंग्रहमे देवसेनने अपने गुरुका नाम विमलसेन गणधर (गणी) दिया है, जबकि दूसरे ग्रंथोमे स्पष्टरूपसे गुरुका नाम उल्लेखित नहीं है, परन्तु कुछ ग्रंथोंके मंगलाचरणोंमे अस्पष्टरूपसे अथवा श्लेपरूपमे वह उल्लेखित मिलता है-जैसे दर्शनसारमें विमलणाणं' पदके द्वारा, नयचक्रमे विगयमलं' और 'विमल-णाण-संजुत्तं' पदोंके द्वारा, आराधनासारमें 'विमलयरगुणसमिद्धं' पदके द्वारा और तत्त्वसारमे 'णिम्मलमविसुद्ध लद्धसम्भावे' पदके द्वारा उसकी सूचना मिलती है । विगयमलं' पद साफ तौरसे विमलका वाचक है और 'विमलणाणं' अथवा 'विमलणाण संजुत्त' को जब प्रतिज्ञात प्रथका विशेषण किया जाता है तब उसका अर्थ विमल (गुरु) प्रतिपादित ज्ञानमे युक्त भी हो जाता है। इसी तरह विमलयरगुणसमिद्धं' आदिको भी समझ लेना चाहिये । अनेक ग्रंथों के मंगलाचरणादिमे देव, गुरु तथा शास्त्रके लिये श्लेपरूपमे समान विशेपणोके प्रयोगको अपनाया गया है और कहीं कहीं अपने नामकी भी श्लेपरूपमे सूचना साथमें कर दी गई है २। उसी प्रकारकी स्थिति उक्त प्रयोगोंकी है। इसके सिवाय, भावसंग्रह के मंगलाचरणमे 'सुरमेणणुयं' दर्शनसारके मंगलाचरणमे 'सुरसेणणमंसियं' और आराधनासारकी मंगलगाथामे 'सुरसेणवंदियं' इन पदोंकी सनानता भी अपना कुछ अर्थ रखती है और वह एककर्तृत्वको सूचित करती है। और इसलिये पांचों ग्रंथ एक ही देवमेनकी कृति मालूम होते है, जो कि मूलसघके और संभवतः कुन्दकुन्दान्वय के आचार्य थे, क्योंकि दर्शनसारमें उन्होंने दूसरे जैन संघोंको थोड़ी थोड़ीसे मत-विभिन्नता के कारण 'जैनाभास' बतलाया है । और साथ ही ४३वी गाथामे यह भी लिखा है कि यदि पद्मनन्दिनाथ (कुन्दकुन्दाचार्य) सीमन्धरस्वामीसे प्राप्त दिव्यजानके द्वारा विशेष बोध न देते तो श्रमणजन सन्मार्गको कैसे जानते? ३/ पं० परमानन्द शास्त्रीने 'सुलोचनाचरित और देवसेन' नामक अपने लेख (अनेकान्त वर्ष ७ किरण ११-१२) मे भावस्ग्रहके कर्ता देवसेनको दर्शनसारके कर्तासे भिन्न बत१ सिरिविमलसेणगणहर-मिस्सो णामेण देवसेणो त्ति । अबुहजण-योहणत्थं तेणेयं विग्इयं सुत्त ॥ ७०१ ॥ २ यथाः-श्रीज्ञानभूषणं देवं परमात्मानमव्ययम् । प्रणम्य बालसंबुध्यै वक्ष्ये प्राकृतलक्षणम् ||-प्राकृतलक्षणटीकाया, शानभूषण-शिष्य-शुभचंद्रः अभिभृय निजविपक्ष निखिलमतोद्योतनो गुणाम्भोषिः । सविता जयतु जिनेन्द्रः शुभप्रबन्धः प्रभाचन्द्रः ॥ न्यायकुमुदचद्र-प्रशस्ति ६ नइ पठमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण । ण विबोइइ तो समणा कहं सुमगं पयाणंति ।। ४३ ॥
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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