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________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची लाते हुए यह प्रतिपादन किया है कि अपभ्रंश भाषाका सुलोचनाचरित्र (वि० स० ११३२ या १३७२)' और प्राकृत भापाका भावसंग्रह दानों एक ही देवसेनकी कृति है, क्योंकि भावसंग्रहके कर्ताकी तरह सुलोचनाचरित्रके कर्ताको भी विमलसेन गणी (गणेधर) का शिष्य लिखा है। साथ ही, इन दोनों ग्रथोंके कर्ता देवसेनकी संगति उन देवसनके साथ बिठलाते हुए जिनका उल्लेख माथुरसंघके भट्टारक गुणकीर्तिके शिष्य यशःकीर्तिने वि० संवत् १४६७ के बने हुए अपने पाण्डवपुराणमे किया है, उन्हें माथुरसंघका विद्वान ठहराया है; इनके समयकी कल्पना विक्रमकी १२वीं या १३वीं शताब्दो की है और इस तरह यह सिद्ध एवं घोषित करना चाहा है वि० स० ६६० (१० वीं शताब्दो) मे दर्शनमारको समाप्त करनेवाले देवसेनके साथ सुलोचनाचरितके कर्ता देवसेनकेका हो नहीं किन्तु भावसंग्रहके कर्ता देवसेनका भी कोई सम्बन्ध नहीं बन सकता । परन्तु यह सब ठीक नहीं है और उसके निम्न कारण है : (१) सुलोचनाचरित्रमें देवसेनने अपने गुरु विमलसेनका नामोल्लेख करते हुए गणी या गणधर नहीं लिखा, बल्कि उनके लिये एक खास विशेषण 'मलधारि' तथा 'मलधारिदेव' का प्रयोग किया है । यह विशेषण भावसंग्रहके कर्ता देवसेनके गुरु विमलसेन गणधरके साथ लगा हुआ नहीं है, और इसलिये दोनोंको एक नहीं कहा जा सकता। (२) भावसंग्रह और सुलोचनाचरित्रके कर्ताओंमेंसे किसी भी देवसेनने अपनेको काष्ठासंधी अथवा माथुरसंघो नहीं लिखा, जब कि पाण्डवपुराणके कर्ता यशःकीर्तिने अपनी गुरुपरम्परामे जिन देवसेनका उल्लेख किया है उन्हें साफ तौरपर काष्ठासंघी माथुरगच्छी बतलाया है। साथ ही, देवसेनको विमलसेनका शिष्य भी नही लिग्वा, बल्कि विमलसेनको देवसेनका उत्तराधिकारी बतलाया है। और इसलिये पाण्डवपुराणके देवसेनके साथ उक्त दोनों ग्रंथों मेसे किसीके भी कर्ता देवसेनकी संगति नहीं बैठती। गुरुपरम्परामे कुछ अफ्रमकथन अथवा क्रमभंगकी कल्पना करके संगति बिठलानेकी बात भी नहीं बन सकती है, क्योंकि एक तो गुरुपरम्पराको देते हुए उसमें अनुक्रमपरिपाटीसे कथनकी साफ सूचना की गई है, दूसरे अन्यत्र भी इस गुरुपरम्पराका प्रारंभ देवसेनसे मिलता है और विमलसेनको देवसेनका पट्टशिष्य सूचित किया है, जिसका एक उदाहरण कवि रैधूके सिद्धान्तार्थसारकी वह लेखकप्रशस्ति है जो जयपुरके बाबा दुलीचन्दजीके शास्त्रभंडार की संवत् १५६३ की लिखी १ ग्रन्थकी समाप्तिका ममय भावणशुक्ला १४ बुधवार राक्षससंवत्सर दिया है, जो ज्योतिषकी गणनानुसार इन दोनों संवतोंमें पड़ता है, जो राक्षस नामक संवत्सर था । २ "विमलसेणमलधारिहि सीसें ।" ३। "सिरिमलधारिदेवपभणिजह, णामे विमलमेणु जाणिज्जइ । तासू मीस .... ....... ... "(प्रशस्ति) ३ सिरिकट्ठसंघ माहुरहो गच्छि पुक्खरगणि मुणि[वर] चई वि लच्छि । संजायउ(या) वीरजिणुक्कमेण, परिवाडियजइवर णिहयएण । सिरिदेवसेणु तह विमलसेणु, तह घम्मसेणु पुण भावसेणु । तहो पट्ट उवण्णउ महमकित्ति अणवरय भमिय जइ जासु किसि। ४ प्रशस्तिका श्राद्य अंश इस प्रकार है : "अथ संवत्सरेस्मिन् श्रीनृपविक्रमादित्यगताब्दः संवत् १५६३ वर्षे वैशाखसुदि त्रयोदशी १३ भौमदिने कुरुजांगलदेशे श्रीसुवर्णपथ-शुभदुर्गे पातिसाहवब्वरु मुगुलु काबिली तस्य पुत्र हुमाऊँ तस्य राज्यप्रवर्तमाने श्रीकाटासंघे माथुरान्वये पुष्करगणे मिथ्यातमविनाशनककौमुदीप्रियागमार्थः गृहः भट्टारकश्रीदेवसेनदेवाः तत्प वादिगजगंधहस्तिश्राचार्यश्रीविमलसेनदेवाः तत्प? उभयभाषाप्रवीणतपोनिधिभट्टारकश्रीधर्मसेनदेवाः तत्पट्टे मिथ्यात्वगिरिस्फोटनैकबहुदंडः श्राचार्यश्रीभावसेनदेवाः तत्प भ० श्रीसहस्रकीर्तिदेवाः तपट्टे प्राचार्यश्रीगुणकीर्तिदेवाः तत्प? भ० यश कीर्तिदेवा: तत्र? ........"
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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