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________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची . अनुसार सब मिलाकर ३४५ है, जिसमे ३३७ दोहे हैं, एक चतुष्पादिका (चौपाई) है और शेष ७ गाथादि छंद हैं, जो अपभ्रंशमे नहीं हैं। इस ग्रंथमे आत्माके तीन भेदों-बहिरास्मा, अन्तरात्मा और परमात्माका वणन बड़े ही अच्छे ढंगसे दिया है और उसके द्वारा आत्मा-परमात्माके भेदको भले प्रकार प्रदर्शित किया है। आत्मा कैसे परमात्मा बन सकता है अथवा कैसे कोई जीव मोह-ग्रंथिको भेदकर अपना पूर्ण विकास सिद्ध कर सकता है और मोक्षसुखका साक्षात् अनुभव कर सकता है, यह सब भी इसमें बडी'युक्तिके साथ वर्णित है। ग्रंथ भट्टप्रभाकर नामक शिष्यके प्रश्नोको लेकर सर्वसाधारणके लिये लिखा गया है और अपने विषयका बडा ही महत्त्वपूर्ण एव उपयोगी ग्रंथ है । इसका विशेष परिचय जाननेके लिये डाक्टर ए०एन० उपाध्येद्वारा सम्पादित परमात्मप्रकाशकी अग्रेजी प्रस्तावनाको देखना चाहिये, जो बड़े परिश्रम और अनुसन्धानके साथ लिखी गई है और जिसका हिन्दीसार भी साथमें लगा हुआ है। ___ इसके कर्ता योगीन्दु (योगिचन्द्र) नामके प्राचार्य हैं, जिन्हें आमतौरपर योगीन्द्र' समझा तथा लिखा जाता है और जो मूल में प्रयुक्त 'जोइन्दु' का गलत संस्कृतरूप है। इनके दूसरे ग्रथ 'योगसार' मे ग्रंथकारका स्पष्ट नाम 'जोगिचंद' दिया है, जिसपरसे 'योगीन्दु' नाम फलित होता है-योगीन्द्र नहीं; क्योकि इन्दु चन्द्रका वाचक है-इन्द्रका नहीं। और इस गलतीको डा० उपाध्येने अपनी उक्त प्रस्तावनामें स्पष्ट किया है । आचार्य योगीन्दुका समय भी उन्होंने ईसाकी ५ वीं और ७ वीं शताब्दीका मध्यवर्ती छठी शताब्दीका निश्चित किया है, जो प्रायः ठीक जान पड़ता है; क्योंकि ग्रंथमें कुन्दकुन्दके भावपाहुडके साथ साथ पूज्यपाद (ई० ५वीं श०) के समाधितंत्रका भी बहुत कुछ अनुसरण किया गया है और परमात्मप्रकाशका कालु लहेविणु जोइया' नामका दोहा चण्डके 'प्राकृतलक्षण' व्याकरण (ई. ७वीं श०) में उदाहरणरूपसे उधृत है । ग्रंथकारने अपना कोई परिचय नहीं दिया और न अन्यत्रसे उसका कोई खास परिचय उपलब्ध होता है, यह बड़े ही खेदका विषय है। इस ग्रंथपर प्रधानत: तीन टीकाएँ उपलब्ध हैं-संस्कृत में ब्रह्मदेवकी, कन्नडमें बालचन्द्र मलधारीकी और हिन्दीमें पं० दौलतरामकी, जो संस्कृत टीकाके आधारपर लिखी गई है। संस्कृत और हिन्दीकी दोनों टीकाएँ एक साथ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालाम प्रकाशित हो चुकी हैं। ३०. योगसार—यह भी अपभ्रंश भाषामें अध्यात्मविषयका एक दोहात्मक ग्रंथ है और उन्हीं योगीन्दु अर्थात् योगिचन्द्र आचार्यकी रचना है जो परमात्मप्रकाशके रच'यिता हैं-ग्रंथ के अन्तिम दोहेमें 'जोगिचंदमुणिणा' पदके द्वारा ग्रंथकार के नामका स्पष्ट उल्लेख किया गया है। इसके पद्योंकी संख्या २० है, जिनमें एक चौपाई और दो सोरठा छंद भी हैं; परन्तु ग्रंथको दोहा छंदमें रचनेकी प्रतिज्ञा की गई है, और दोहोंमे ही रचे जानेकी अन्तिम दोहेमें सूचना की गई है, इससे तीनों भिन्न छन्द प्रक्षिप्त जान पड़ते हैं। यह ग्रंथ उन भव्य जीवोंको लक्ष्य करके लिखा गया है जो संसारसे भयभीत हैं और मक्षिक लिये लालायित हैं। ३१. निजात्माष्टक—यह आठ पद्यों (स्रग्धरा छंदों) में एक स्तोत्र ग्रंथ है, जिसमें निजात्माका सिद्ध स्वरूपसे ध्यान किया गया है । प्रत्येक पद्यके अन्तमें लिखा है 'साह मायेमि णिच्चं परमपय-गो णिव्वियप्पो णियप्पो' अर्थात् वह परमपदको प्राप्त निविकल्प निजात्मा मैं हूँ, ऐसा मैं नित्य ध्यान करता हूँ। इसे भी परमात्मप्रकाशके कताको कृति कहा जाता है; परन्तु मूलमें ऐसा कोई उल्लेख नहीं है । अन्त में लिखा है-"इति योगीन्द्र देव-विरचितं निजात्माष्टकं समाप्तम् ।" इतने मात्रसे यह ग्रंथ परमात्मप्रकाशके कताका
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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