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________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची आचार्य परम्परासे चले आये हुए न्यायको हृदयमे धारण करके) नामकी गाथा' असगत तथा खटकनेवाली हो जाती है । इस लिये ये तीनों ही गाथाएं तिलोयपण्णत्तीकी अंगभूत हैं। धवला (संतपरूवणा) में उक्त दोनों श्लोकोंको देते हुए उन्हें 'उक्त च' नहीं लिखा और न किसी खास ग्रन्थके वाक्य ही प्रकट किया है । वे इस प्रश्नके उत्तरमे दिये गए हैं कि "एत्थ किमठं णयपरूवणमिदि" -यहाँ नयका प्ररूपण किस लिये किया गया है ? और इस लिये वे धवलाकार-द्वारा निर्मित अथवा उद्धृत भी हो सकते हैं । उद्धृत होनेकी हालतमें यह प्रश्न पैदा होता है कि वे एक स्थानसे उद्धृत किये गये हैं या दो स्थानोसे ? यदि एक स्थान से उद्धृत किये गए हैं तो वे लघीयस्त्रयसे उद्धृत नहीं किये गये, यह सुनिश्चित है, क्योंकि लघीयस्त्रयमे पहला श्लोक नहीं है । और यदि दो स्थानोसे उद्धृत किये गए हैं तो यह बात कुछ बनती हुई मालूम नहीं होती; क्योंकि दूसरा श्लोक अपने पूवमे ऐसे श्लोकको अपेक्षा रग्वता है जिसमें उद्देशादि किसी भी रूपमे प्रमाण, नय और निक्षेपका उल्लेख हो-लघीयस्त्रयमे भी 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः' श्लोकके पूर्व मे एक ऐसा श्लोक पाया जाता है जिसमे प्रमाण, नय और निक्षेपका उल्लेख है और उनके आगमानुसार कथनको प्रतिज्ञा की गई है ( 'प्रमाण-नय-निक्षेपानभिधास्ये यथागम')-और उसके लिये पहला श्लोक सगत जान पड़ता है । अन्यथा, उसके विपयमे यह बतलाना होगा कि वह दूसरे कौनसे ग्रन्थका स्वतंत्र वाक्य है । दोनो गाथाओ ओर श्लोकोकी तुलना करनेसे तो ऐसा मालूम होता है कि दोनों श्लोक उक्त गाथाश्रो परसे अनुवादरूपमे निर्मित हुए हैं। दूसरी गाथामे प्रमाण, नय ओर निक्षेपका उसो क्रमसे लक्षण-निर्देश किया गया है जिस क्रमसे उनका उल्लेख प्रथम गाथामे हुआ है । परन्तु अनुवादके छन्द (श्लोक) मे शायद वह बात नहीं बन सको, इसोसे उसमे प्रमाणके बाद निक्षेपका और फिर नयका लक्षण दिया गया है। इससे तिलोयपण्णत्तीकी उक्त गाथाओंकी मौलिकताका पता चलता है और ऐसा जान पड़ता है कि उन्हीं परसे उक्त श्लोक अनुवादरूपमे निर्मित हुए हैं-भले हो यह अनुवाद स्वयं घवलाकारके द्वारा निर्मित हुआ हो या उनसे पहले किसी दूसरेके द्वारा। यदि धवलाकारको प्रथम श्लोक कहींसे स्वतंत्र रूपमे उपलब्ध होता तो वे प्रश्न के उत्तरमे उसीको उद्धृत कर देना काफी समझते-दूसरे लघीयस्त्रय-जैसे ग्रथसे दूसरे श्लोकको उद्धृत करके साथमे जोड़नेकी जरूरत नहीं थी, क्योकि प्रश्नका उत्तर उस एक ही श्लोकसे हो जाता है । दूसरे श्लोकका साथमे होना इस बातको सूचित करता है कि एक साथ पाई जाने वालो दोनो गाथाओं के अनुवादरूपमे ये श्लोक प्रस्तुत किये गए हैं-चाहे वे क्सिीके भी द्वारा प्रस्तुत किये गये हो । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि धवलाकारने तिलोयपएणतीकी उक्त दोनों गाथाओंको ही उद्धृत क्यो न कर दिया, उन्हें श्लोकोमे अनुवादित करके या उनके अनुवादको रखनेको क्या जरूरत थी ? इसके उत्तरमे मैं सिफ इतना ही कह देना चाहता हूँ कि यह सब धवलाकार वीरसेनको रुचिको बात है, वे अनेक प्राकृत वाक्योंको संस्कृतमे और संस्कृत वाक्योंको प्राकृतमें अनुवादित करके रखते हुए भी देखे जाते है। इसी तरह अन्य ग्रन्थोंके गद्यको पद्यमे और पद्यको गद्यमे परिवर्तित करके अपनी टीकाका अग बनाते हुए भी पाय जाते है । चुनॉचे तिलोयपएणत्तीको भी अनेक गाथाओको उन्होंने संस्कृत गद्यमे अनुवादित करके रक्खा है, जैसे कि मंगलको निरुक्तिपरक गाथाएं, जिन्हें शास्त्रीजीने अपने द्वितीय प्रमाणमे, समानताकी तुलना करते हुए, उद्धृत किया है। और इसलिये यदि ये उनके द्वारा १ इस गाथाका नम्बर ८४ है । शास्त्रीजीने जो इसका न० ८८ सूचित किया है वह किसी गलतीका परिणाम जान पड़ता है।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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