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________________ ५१ पुरातन-जनवाक्य-सूची व्याख्यानादिकी उसी तरह सृष्टि की है जिस तरह कि अकलंक और विद्यानन्दादिने अपने राजवार्तिक, श्लोकवार्तिकादि ग्रन्थोमे अनेक विपयोंका वर्णन और विवेचन बहुतसे ग्रन्थोके नामल्लेखके बिना भी किया है। (२) द्वितीय प्रमाणको उपस्थित करते हुए शास्त्रीजीने यह बतलाया है कि तिलोयपएणत्तिके प्रथम अधिकारकी ७ वीं गाथासे लेकर८७ वीं गाथा तक ८१ गाथाओंमे मंगलादि बह अधिकारोंका जो वर्णन है वह पूर का पूरा वर्णन संतपरूवणाकी धवला टीकामें आए हुए वर्णनसे मिलता जुलता है । और साथ ही इस सादृश्य परसे यह भी फलित करके बतलाया कि "एक प्रथ लिखते समय दूसरा ग्रन्थ अवश्य सामने रहा है । परन्तु धवलाकार के सामने तिलोयपएणत्ति नहीं रही, धवलामे उन छह अधिकारोका वर्णन करते हुए जो गाथाएँ या श्लोक उद्धृत किये गये हैं वे सब अन्यत्रसे लिये गये हैं तिलोयपएणत्तिसे नहीं, इतना हो नहीं बल्कि धवलामे जो गाथाएं या श्लोक अन्यत्रसे उद्धृत हैं उन्हें भी तिलोयपएणत्तिके मूलमे शामिल कर लिया है' इस दावेको सिद्ध करने के लिये कोई भा प्रमाण उपस्थित नहीं किया गया । जान पडता है पहले भ्रांत प्रमाणपरसे बनी हुई गलत धारणा के अाधारपर ही यह सब कुछ बिना हेतुके हो कह दिया गया है || अन्यथा शास्त्री जी कमसे कम एक प्रमाण तो ऐसा उपस्थित करते जिससे यह जाना जाता कि धवलाका अमुक उद्धरण अमुक ग्रन्थ के नामोल्लेख पूवक अन्यत्रसे उद्धृत किया गया है और उसे तिलोयपएणत्तिका अंग बना लिया गया है । ऐसे किसी प्रमाणके अभावमे प्रस्तुत प्रमाण परसे अभीष्ट की कोई सिद्धि नहीं हो सकती और इसलिये वह निरर्थक ठहरता है। क्योकि वाक्योकी शाब्दिक या आर्थिक समानतापरसे तो यह भी कहा जा सकता है कि धवलाकारके सामने तिलोयपएणत्ति रही है, बल्कि ऐसा कहना, तिलोयपएणत्तिके व्यवस्थित मौलिक कथन और धवलाकारके कथनकी व्याख्या शैलीको देखते हुए अधिक उपयुक्त जान पडता है। रही यह बात कि तिलोयपएणत्तिकी ८५ वीं गाथामे विविध ग्रन्थ-युक्तियों के द्वारा मंगलादिक छह अधिकारोंके व्याख्यानका उल्लेख है' तो उससे यह कहाँ फलित होता हैकि उन विविध ग्रन्थोंमे घवला भी शामिल है अथवा धवलापरसे ही इन अधिकारोंका संग्रह किया गया है ?-खासकर ऐसी हालतमे जबकि धवलाकार स्वयं 'मंगलणिमित्तहेऊ' नामको एक भिन्न गाथाको कहींसे उद्धृत करके यह बतला रहे हैं कि 'इस गाथामे मंगलादिक छह बातोंका व्याख्यान करने के पश्चात् आचार्यके लिये शास्त्रका (मूलग्रन्थका) व्याख्यान करनेकी जो बात कही गई है वह आचार्य परम्परासे चला आया न्याय है, उसे हृदयमे धारण करके और पूर्वाचार्योंके आचार (व्यवहार) का अनुसरण करना रत्नत्रयका हेतु है ऐसा समझकर, पुष्पदन्त आचार्य मगलादिक छह अधिकारोका सकारण प्ररूपण करने के लिये मंगलसूत्र कहते हैं । क्योकि इससे स्पष्ट है कि मगलादिक छह अधिकारोंके कथनको परिपाटी बहुत प्राचीन है-उनके विधानादिका श्रेय धवलाको प्राप्त नहीं है। और इसलिये तिलोयपएणत्तिकारने दि इस विषयमे पुरातन आचार्याको कृतियोंका अनुसरण किया है तो वह न्याय ही है परन्तु उतने मात्रमे उसे धवलाका अनुसरण नहीं कहा जासकता धवलाका अनुमरण कहने के लिये पहले यह सिद्ध करना होगा कि धवला तिलोयपएणत्तिसे पूर्वकी कृति है, और यह मिद्व नहीं है । प्रत्युत इसके, यह स्वयं धवलाके उल्लेखोंसे ही १ "मगलपहुदिछक्क वक्खाणिय विविहगथजुत्तीहि ।" २ 'इदि णायमाइरिय-परपरागय मणेणावह रिय पव्वाइरियायाराणुसरणति-रयण-हेउ त्ति पुप्फदताइरियो मगनादीण छण्ण मकाणाण परूवणठ्ठ सुत्तमाह।"
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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