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________________ प्रस्तावना ही अनुवादित होकर रक्खे गये हैं तो इसमे आपत्तिकी कोई बात नही है। इसे उनकी अपनी शैली और पसन्द आदिकी बात समझना चाहिये। अब देखना यह है कि शास्त्रीजीने 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः' इत्यादि श्लोकको जो अकलंकदेवकी 'मौलिक कृति' बतलाया है उसके लिये उनके पास क्या आधार है ? कोई भी आधार उन्होंने व्यक्त नहीं किया; तब क्यो अकलंकके ग्रंथमे पाया जाना ही अकलंककी मौलिक कृति होनेका प्रमाण है ? यदि ऐसा है तो राजवार्तिकमें पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिके जिन वाक्योंको वार्तिका दिके रूपमे विना किसी सूचनाके अपनाया गया है अथवा न्यायविनिश्चयमे समन्तभद्रके 'सूक्ष्मान्तरितदूरार्था.' जैसे वाक्योंको अपनाया गया है उन सबको भी अकलंकदेवकी 'मौलिक कृति' कहना होगा । र्याद नहीं, तो पिर उक्त श्लोकको अकलंकदेवकी मौलिक कृति बतलाना निर्हेतुक ठहरेगा। प्रत्युत इसके, अकलंकदेव चूंकि यतिवृषभके बाद हुए हैं अतः यतिवृषभकी तिलोयपएणत्तीका अनुसरण उनके लिये न्यायप्राप्त है और उसका समावेश उनके द्वारा पूर्वपद्यमे प्रयुक्त 'यथागम' पदसे हो जाता है , क्योंकि तिलोयपण्णत्ती भी एक आगम ग्रन्थ है जैसा कि गाथा नं० ८५, ८६, ८७ मे प्रयुक्त हुए उसके विशेषणोंसे जाना जाता है। धवलाकारने भी जगह जगह उसे 'सूत्र' लिखा है और प्रमाणरूपमें उपस्थित किया है । एक जगह वे किसी व्याख्यानको व्याख्यानाभास बतलाते हुए तिलोयपण्णेत्तिसूत्रके कथनको भो प्रमाणमे पेश करते हैं और फिर लिखते हैं कि सूत्रके विरुद्ध व्याख्यान नहीं होता है जो सूत्रविरुद्ध हो उसे व्याख्यानाभास समझना चाहिये-नहीं तो अतिप्रसग दोप आयेगा'। इस तरह यह तीसरा प्रमाण असिद्ध ठहरता है । तिलोयपएणत्तिकारने चूंकि धवलाके किसी भी पद्यको नहीं अपनाया अतः पद्योंको अपनानेके आधारपर तिलोयपएणत्तीको धवलाके बादकी रचना बतलाना युक्तियुक्त नहीं है। (४) चौथे प्रमाणरूपमे शास्त्रीजीका इतना ही कहना है कि 'दुगणदुगुणो दुवग्गो णिरतरो तिरियलोगो' नामका जो वाक्य धवलाकारने द्रव्यप्रमाणानुयोगद्वार (पृष्ठ ३६) मे तिलोयपएणत्तिके नामसे उद्धत किया है वह वर्तमान तिलोयपण्णत्तीमें पर्याप्त खोज करने पर भी नहीं मिला. इसलिये यह तिलोयपएणत्ती उस तितोयपण्णत्तीसे भिन्न है जो घवलाकारके सामने थी । परन्तु यह मालूम नहीं हो सका कि शास्त्रीजीकी पर्याप्त खोजका क्या रूप रहा है । क्या उन्होंने भारतवर्षके विभिन्न स्थानोंपर पाई जानेवाली तिलोयपएणत्तीकी समस्त प्रतियाँ पूर्ण रूपसे देख डाली हैं ? यदि नहीं देखी हैं, और जहाँ तक मैं जानता हूँ समस्त प्रतियों नहीं देखी हैं, तब वे अपनी खोजको 'पर्याप्त खोज' कैसे कहते हैं ? वह तो बहुत कुछ अपर्याप्त है। क्या दो एक प्रतियोंमें उक्त वाक्यके न मिलनेसे ही यह नतोजा निकाला जा सकता है कि वह वाक्य किसी भी प्रतिमें नहीं है ? नहीं निकाला जा सकता । इसका एक ताजा उदाहरण गोम्मटसार-कर्मकाण्ड (प्रथम अधिकार) के वे प्राकृत गद्यसूत्र हैं जो गोम्मटसारको पचासों प्रतियोंमे नहीं पाये जाते; परन्तु. मूडबिद्रीकी एक प्राचीन ताडपत्रीय कन्नड प्रतिमे उपलब्ध हो रहे हैं और जिनका उल्लेख मैंने अपने गोम्मटसार-विषयक निबन्धमें किया है। इसके सिवाय, तिलोयपण्ण त्ति-जैसे बड़े ग्रन्थमे लेखकों के प्रमादसे दो चार गाथाओंका छूट जाना कोई बड़ी बात नहीं है । पुरातन-जैनवाक्य-सूचीके अवसरपर मेरे सामने तिलोयपएणत्तोकी चार प्रतियाँ रहीं हैं१ "तं वक्खाणाभाममिदि कुदो णव्वदे ? जोइसिय-भागहारसुत्तादो चंदाहच्च बिबपाणपस्वयतिलोयपरणत्तिसुत्तादो च । ण च सुत्तविरुद्ध वक्खाणं होइ, अइपसंगादो।" धवला १, २, ४, पृ० ३६
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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