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________________ प्रस्तावना उद्धृत करके उन्हें प्रथका अंग बनाएं । यदि किसी तरह उन्हींके द्वारा यह उद्धरण-कार्य सिद्ध किया जा सके तो कहना होगा कि वे विक्रमकी ११ वीं शताब्दीके अन्तमे अथवा उसके बाद हुए हैं। क्योंकि इसमे आचार्य नेमिचन्द्रके त्रिलोकसारकी गाथाएँ भी 'उक्त' च त्रैलोक्यसारे' जैसे वाक्यके साथ उद्धृत पाई जाती हैं। और इसलिये इस सारी परिस्थिति परसे यह कहने मे कोई सकोच नहीं होता कि तिलोयपण्णत्तीमे जिस लोकविभागका उल्लेख है वह वही सर्वनन्दीका प्राकृत-लोकविभाग है जिसका उल्लेख ही नहीं किन्तु अनुवादितरूप सस्कृत लोकविभागमे पाया जाता है । चूंकि उस लोकविभागका रचनाकाल शक संवत् ३८० (वि० सं० ५१५) है अतः तिलोयपण्णत्तीके रचयिता यतिवृषभ शक सं० ३८० के बाद हुए हैं, इसमें जरा भी सन्देह नहीं है । अब देखना यह है कि कितने वाद हुए हैं। () तिलोयपएणत्तीमे अनेक काल-गणनाओंके आधारपर 'चतुर्मुख' नामक कल्कि, की मत्यु वीरनिर्वाणसे एक हजार वर्ष बाद बतलाई है, उसका राज्यकाल ४२ वर्ष दिया है, रस अत्याचारों तथा मारे जानेकी घटनाओंका उल्लेख किया है और मत्युपर उसके पुत्र अजितंजयका दो वर्ष तक धर्मराज्य होना लिग्गा है । साथै ही, बादको धर्मकी क्रमशः हानि वतलाकर और किसी राजाका उल्लेख नहीं किया है। इस प्रकारकी कुल गाथाएँ निम्न प्रकार हैं. जो कि पालकादिके राज्यकाल ६५८ का उल्लेग्य करनेके बाद दी गई है : "तत्तो कक्की जादो इंदसुदो तस्म चउमुहो णामो । सत्तरि-वरिमा अाऊ विगुणिय-इगवीस-रज्जत्ती ।। ६६ ।। आचारांगधरादो पणहत्तरि-जुत्त दुसय-वासेसुं । पोलीणेसुं बद्धो पट्टो कक्की स परवइणो ॥ १०॥" "अह को वि असुरदेो ओहीदो मुणिगणाण उवसग्गं । . णादृणं तक्कक्की मेरेदि हु धम्मदोहि त्ति ॥१०३ ॥ कक्किसुदो अजिदंजय-णामो रक्खदि णमदि तच्चरणे । त रक्खदि असुरदेओ धम्मे रज्जं करेज्जंति ॥ १०४ ॥ तत्तो दो ये वासा सम्मं धम्मो पयहदि जणाणं । ___ कमसो दिवसे दिवसे कालमहप्पेण हाएदे ॥ १०५॥" (इस घटनाचक्रपरसे यह साफ मालूम होता है कि तिलोयपएणत्तीकी रचना कल्कि राजाकी मत्युसे १०-१२ वर्षसे अधिक बादकी नहीं है। यदि अधिक बादकी होती तो ग्रंथपद्धतिको देखते हुए संभव नहीं था कि उसमे किसी दूसरे प्रधान राज्य अथवा राजाका १ कल्कि निःसन्देह ऐतिहासिक व्यक्ति हुश्रा है, इस बात को इतिहातज्ञोंने भी मान्य किया है । डा. क० या० पाठक उसे मिहिरकुल' नामका राजा बतलाते हैं और जैन काल-गणनाके साथ उसकी सगति विठलाते हैं, जो बहुत अत्याचारी था और जिसका वर्णन चीनी यात्री हुएन्तसामने अपने यात्रावर्णनमें विस्तारके साथ किया है तथा राजतर गिणीमें भी जिसकी दुष्टताका हाल दिया है । परन्तु डा० काशीप्रसाद (के० पी०) जायसवाल इस मिहिरकुलको पराजित करनेवाले मालवाधिपति विष्णुयशाधर्माको ही हिन्द पुराणों श्रादिके अनुसार 'कल्कि' बतलाते हैं, जिसका विजयस्तम्भ मन्दसौरम स्थित है और वह ई० सन् ५३३-३४ मे स्थापित हुया था। (देखो, जैनहितैपी भाग १३ अंक १२ ग का सवाल नीका 'कल्कि-अवतारकी ऐतिहासिकता' और पाठकजीका 'गुप्त राजानोका काल, मा और कल्कि नामक लेख पृ० ५१६ से ५२५ । )
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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